आओ बददुआ दें
रवि अरोड़ा
मैं बहुत आलसी हूँ । दर्जनों काम मेरी प्राथमिकता में हैं मगर उन्हें शुरू ही नहीं कर पाता । वर्षों से मैं सर्वोच्य न्यायालय में एक जन हित याचिका दायर करना चाहता हूँ मगर आज तक इस दिशा में एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ा सका । यह पीआईएल किसी संस्था अथवा विभाग के ख़िलाफ़ नहीं वरन एक पेड़ के ख़िलाफ़ दायर होनी है और वह पेड़ है यूकेलिप्टस यानि सफ़ेदा अथवा नीलगिरी । इस पेड़ को किशोरावस्था से मैं देख रहा हूँ । शुरुआती दिनो में मुझे इसकी ऊँचाई लुभाती भी थी मगर अब जब से इसका पर्यावरण विरोधी ख़तरनाक रूप संज्ञान में आया है , तब से इससे नफ़रत सी हो गई है और मैं मन ही मन इसे काटता भी रहता हूँ ।
एक पेड़ के प्रति मेरी नफ़रत हो सकता है आपको हैरान करे मगर इसका राक्षसी रूप आपकी नज़र में आएगा तो सम्भवत आप भी मेरे साथ हो लेंगे । दरअसल यह पेड़ भूजल को ओक लगा कर पीता है और जहाँ भी लगाया जाता है वहाँ का भूजल स्तर बेहद नीचे गिरा देता है । एक सर्वे के अनुसार सफ़ेदे का एक सामान्य पेड़ प्रति दिन चौबीस गैलन पानी धरती से सोखता है जो भारत के तमाम पेड़ों से तीन से चार गुना अधिक है । यह जहाँ भी उगाया जाता है , वहाँ ज़मीन की उर्वरता भी ख़त्म कर देता है । यह काम इस हद तक सफ़ेदा करता है कि उसके आसपास घास तक नहीं उगती । दरअसल यह पेड़ हमारे देश का है ही नहीं । विकास की आपाधापी में आज़ादी के बाद इसे आस्ट्रेलिया से लाया गया था । यह मूलतः वहीं का पेड़ है और वहाँ इसकी छः सौ से अधिक प्रजातियाँ हैं । दुनिया की नज़र में यह पहली बार सन 1770 में आया और फिर उन्नीसवीं सदी के आते आते पूरी दुनिया में छा गया । औद्योगिक क्रांति के दौर में अपनी सख़्त, वज़नी और टिकाऊ लकड़ी के कारण दुनिया ने इसे हाथों हाथ लिया और आस्ट्रेलिया समेत अनेक देश इससे भारी मात्रा में धन कमाने लगे । भारत में भी नीलगिरी की पहाड़ियों पर लाकर इसे उगाया गया और यहीं से हम इसे नीलगिरी पुकारने लगे । पर्यावरण न तब हमारी प्राथमिकताओं में था और न अब है । यही वजह रही कि दलदली ज़मीन का पानी सुखाने के लिए उगाया जाने वाला पेड़ हमने सड़कों के किनारे , पार्कों , तमाम सरकारी ज़मीन और खेतों की मुँडेरों पर करोड़ों की संख्या में लगा दिया । नॉर्थ-ईस्ट को छोड़ कर देश का शायद ही एसा कोई कोना होगा जहाँ आज यह भारी मात्रा में न हो । वोट की राजनीति में अपने वोट बैंक किसानो को लुभाने के लिए तमाम सरकारों ने भी इसके बीज दोनो हाथों से बाँटे और बिना मेहनत और लागत के इसकी लकड़ी से होने वाली मोटी कमाई के चलते किसान भी बौरा गए । अब किसान भी क्या करें ? खेती में कमाई है नहीं और सफ़ेदे की नक़दी फ़सल से बिना कुछ करे धरे नोट बरस रहे हैं । एक बार लगाने के बाद तीन बार काट लो । तीन साल में बल्ली और पाँच साल में पूरा पेड़ तैयार । बिना मेहनत के एक एकड़ ज़मीन से कम से कम पचास हज़ार रुपए सालाना की आमदनी हो तो किसान का लालच भी स्वाभाविक लगता है । चलिए देश का किसान तो अशिक्षित है मगर सरकार को क्या हुआ है , वह क्यों इसपर प्रतिबंध नहीं लगाती ? हरियाणा जैसे अनेक प्रदेशों की सरकारें क्यों आज भी इसके बीज मुफ़्त बाँट रही हैं ? क्या सरकार को दिखाई नहीं दे रहा कि पानी की बचत को दुनिया भर में एक के बाद एक देश इसपर प्रतिबंध लगाते जा रहे हैं ? क्या सरकार को पता नहीं कि देश में नदियों , तालाबों और जल भराव वाली भूमि पर क़ब्ज़ा करने के लिए भूमाफ़िया इस जल सोख्ता पेड़ का सहारा ले रहे हैं ? माना इसके कुछ औषधीय गुण हैं और इसकी लकड़ी भी मज़बूत है मगर औषधीय गुण तो भांग और अफ़ीम में भी हैं । उसकी खेती में मुनाफ़ा भी शायद किसान को अधिक होगा । फिर क्यों नहीं अफ़ीम और भांग की खेती की इजाज़त सरकार दे देती ? मैं जानता हूँ कि आप भी मेरी तरह आलसी ही होंगे और इस राक्षसी पेड़ के ख़िलाफ़ कुछ नहीं करेंगे । तो चलिए कम से कम आज से इस पेड़ को बददुआ ही देना शुरू कर दें । क्या पता हमारी बददुआयें ही इसे लग जायें ।