मुआफ़ी
रवि अरोड़ा
हम हिंदुस्तानी बड़े नौटंकीबाज़ हैं । घड़ी-घड़ी नाटक करते हैं । अब तो हम मरने का नाटक भी करने लगे हैं । हाल ही में हमारे पाँच किसानों ने मंदसौर में पुलिस की गोली खा कर मरने का नाटक किया । अब आप कहेंगे कि मंदसौर में नाटक कहाँ हुआ , वहाँ तो सचमुच पाँच किसान मारे गए । मगर आप ग़लत कह रहे हैं । मैं आपकी मानूँ या सरकार की ? या सरकार के उन लाखों फ़ेसबुक़िया और वट्सएपिया प्रवक्ताओं की जो चिल्ला चिल्ला कर कह रहे हैं कि यह सब नाटक है । मरने वालों के फ़लाँ पार्टी से सम्बंध , उनके जूते , चश्मे और कपड़े भी सबूत के तौर पर पेश किए जा रहे हैं । सिर्फ़ मंदसौर के पाँच किसानों की ही बात क्यों करें , वर्ष 1990 से लेकर अब तक दस लाख किसानों द्वारा की गई आत्महत्या भी तो नाटक है । हाल ही में तमिलनाडू के किसानों ने जो जंतर मंतर पर पेशाब पिया और चूहे खाए वह भी नाटक था । ग़ुस्साए किसान सड़कों पर दूध और टमाटर बिखेर रहे हैं , वह सब नक़ली है । दूध नहीं खड़िया मिला पानी है और टमाटर तो प्लास्टिक के हैं । मेरा कहा मानिए और यदि आपको अपनी इज़्ज़त प्यारी है तो इनसे उलझिए मत और ज़ोर से कहिए – यह सब नाटक है , अभिनय है । विरोधी दल करा रहे हैं सब । वही विरोधी दल जिनकी ज़मानतें हमने ज़ब्त करा दीं मगर उनके कहने पर अब सल्फ़ास और पुलिस की गोली अवश्य खा रहे हैं ।
उन दिनो एक करोड़ पति सांसद के यहाँ आना जाना था । ठेठ देहाती व किसान परिवार के इस सांसद को जब देखो खाने में साग ही खाते हुए मिलते थे । पूछने पर बताते कि गाँव में कभी दाल तो देखी ही नहीं थी । सब्ज़ियाँ उगाने को पैसे नहीं होते थे सो साग बो देते थे । सुबह शाम इसी से गुज़ारा होता था सो वही आदत पड़ गई है । किसान और किसानी पर मेरे सामान्य ज्ञान का मज़ाक़ उड़ाते हुए वह अक्सर कहते किसान वह नहीं है जो फ़िल्मों में या राजधानी के आसपास के मुआवज़ा पाए लोगों के रूप में आप देखते हो । देश भर के गाँवों में आधे तो खेतिहर मज़दूर हैं और एक तिहाई वह लोग हैं जो गाँव में रह कर छोटे-मोटे काम करते हैं । बड़े किसान तो गाँवो में बहुत कम ही होते हैं । गाँवों में औरतों की हालत और भी ख़राब है तथा उन्हें पुरुषों के मुक़ाबले आधा मेहनताना ही मिलता है जबकि खेत की निराई जैसा महत्वपूर्ण काम वही करती हैं । सांसद महोदय उन नेताओं का भी ख़ूब मज़ाक़ उड़ाते थे जो ख़ुद को किसान बताते हैं ।
हाल ही में एक चर्चा चली कि मंदसौर में किसानो की मौत पर किसी सरकार, नेता और दल ने मुआफ़ी नहीं माँगी । अब मुआफ़ी तो वह माँगे जो शर्मिंदा हो । हमारे देश के कर्णधारों की आँखों में इतनी शर्म है ही कहाँ ? बँटवारे में मरे लाखों लोगों के परिवार वालों से किसने मुआफ़ी माँगी ? पंजाब , कश्मीर , नक्सलवाद , माओवाद , आज़ादी के बाद हुए हज़ारों दंगो में अब तक लाखों लोग मारे गए , उसपर किसने मुआफ़ी माँगी ? अख़बार बताते हैं कि हाल ही में अमेरिका की एक लेखिका ने अपने उपन्यास के एक पात्र की मौत पर अपने पाठकों से मुआफ़ी माँगी है । दरअसल पाठकों को लगता था कि वह पात्र ज़िंदा रहता तो उपन्यास और अच्छा बनता । पता नहीं कैसे लोग हैं वे जो काल्पनिक चरित्रों की मौत पर भी शर्मिंदा हो जाते हैं ? हमसे कुछ क्यों नहीं सीखते ? सीखते तो वह भी कहते-कोई मरे कोई जीए , सुथरा घोल पतासा पीए ।