ढक्कन

रवि अरोड़ा

भाषा विज्ञान की अपने को ज़रा भी समझ नहीं है । शब्द कहाँ से आते हैं , कैसे आते हैं , कौन इन्हें घड़ता है और वक़्त के साथ उनके अर्थ क्यों बदल जाते हैं ..कुछ भी तो मुझे नहीं पता । अब इस ‘ढक्कन’ शब्द को ही लें । पता नहीं इसका सही मायने का अर्थ अब छोटा क्यों हो चला है और हमारी बोलचाल में इसके नए मायने कहाँ से आ घुसे ?

किसी बर्तन को बंद करने वाला हिस्सा यानि ढक्कन कब राजनीतिक हो गया , पता ही नहीं चला । भाषा वैज्ञानिक भी ख़ामोश हैं और ढक्कन शब्द की महिमा नहीं बघारते । अब यह बात तो अपने पल्ले बिलकुल ही नहीं पड़ रही कि भाजपा द्वारा अपने परमपुरुष लालकृष्ण आडवाणी जी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार नहीं बनाने का इस ढक्कन शब्द से क्या लेना-देना है ? अब यदि ढक्कन शब्द ही उपयुक्त है तो क्या इसे एसा नहीं कहेंगे कि आज के ढक्कनों को उन लोगों ने ही ढक्कन किया जिन्हें ढक्कन होने से उन्होंने ही कभी बचाया था ? मुआफ़ कीजिए मुझे तो अब विश्वास हो चला है कि यह दुनिया ढक्कनबाज़ी से ही तो चल रही है । ढक्कन ही इसे चला रहे हैं और ख़ुद को नाढक्कन समझ रहे हैं । मगर यह दुनियादारी बड़ी ज़ालिम शय है और कोई बड़ी बात नहीं कि एक ना एक दिन वे ख़ुद ढक्कन हो जाएँगे और उनके अपने ही एसा करेंगे । गांधी और नेहरू जैसे लोग जिनके एक इशारे पर मुल्क कभी उठ कर खड़ा हो गया , आज यदि वे ढक्कन किए जा रहे हैं तो यह कैसे मान लें कि आज के नाढक्कनों को कल कोई ढक्कन नहीं करेगा । अपनी ढक्कन जैसी हालत पर टसुए बहा रही कांग्रेस ने भी तो नरसिम्हा राव जैसे अपने उस नेता को ढक्कन किया था, जिसने ना केवल उनकी पार्टी को बल्कि पूरे मुल्क को भी आर्थिक प्रगति के लिए खड़ा कर दिया था । बंदों की ही बात क्यों हो , यहाँ तो मुद्दे भी ढक्कन हो जाते हैं अथवा कर दिए जाते हैं । योग दिवस से किसान आंदोलन को ढक्कन बनाए जाने की गवाही तो अभी अभी ही हम लोगों ने दी है । हमारे प्रधान सेवक जी में आज इतनी ताक़त है कि वे जिसे चाहें ढक्कन कर दें । अपने इस फ़न का मुज़ाहिरा भी वह खुलकर कर भी रहे हैं और चहूँओर ढक्कन ही ढक्कन दिखाई पड़ रहे हैं । क्या अपने और क्या पराए । सभी चुनावी वादे ढक्कन हुए । सभी मुद्दे ढक्कन कर दिए गए । प्रधानसेवक और उनकी पार्टी ही क्यों , अन्य दल भी कहाँ पीछे हैं ?

कभी कहा जाता था- इश्क़ में फ़ना हो जाना मगर अब कहा जाने लगा है- राजनीति में ढक्कन हो जाना । ढक्कनों की गिनती शुरू करो तो ख़त्म ही नहीं होती । ख़ास बात यह है कि कोई मर्ज़ी से ढक्कन नहीं होता । सभी की कोशिश नाढक्कन होने की है । यही वजह है कि उन्हें दूसरों को ढक्कन करना पड़ता है । कोई मुल्क हो , कोई पार्टी हो सब जगह यही गाथा है । अब हम लोग भला कैसे इससे अछूते रहें ? होगी कभी राजनीति सेवा , होती होगी कभी इसमें मुरव्वत । अब तो हर कोई पहले उस सीढ़ी को ही गिराता है जिसने उसे ऊपर पहुँचाया । गिरी सीढ़ियों के अंबार दिखाई देते हैं पूरे देश में , समाज में । आडवाणी जी राष्ट्रपति बनते अथवा ना बनते , अपना इससे कोई सरोकार नहीं । अपने राम तो केवल तमाशबीं हैं और उसी का आनंद ले रहे हैं । मगर फिर भी दिल कह तो उठता ही है कि जब चहूँओर ढक्कनबाज़ों का हुजूम है तो लगे हाथ हम भी गिन ही लें कि अपने हाथों कौन कौन ढक्कन हुआ ? हालाँकि कभी कभी निगाहें उसे भी ढूँढती हैं जिसके हाथों अपना ढक्कन होना बदा है । आप भी ढूँढये ।

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