मिसाले वफ़ा

रवि अरोड़ा
शायद 1986 की बात है । टीवी पर भीष्म साहनी के उपन्यास ‘ तमस ‘ पर आधरित धारावाहिक आ रहा था । शाम को जैसे ही तमस का प्रसारण शुरू होता , गलियाँ-मोहल्ले बाज़ार सब सूने हो जाते और लोगबाग़ टीवी के सामने जम जाते । पहले ही एपिसोड ने देश भर में तहलका मचा दिया । टीवी पर तमस जैसी सफलता बाद में रामायण और महाभारत को ही नसीब हुई । दरअसल अपने बाप दादाओं से बँटवारे की विभीषिका की कहानियाँ सुनते सुनते बड़ी हुई हमारी पीढ़ी के लिए यह उस काल खंड को जीने जैसा ही अनुभव था जिसे गोविंद निहलानी ने बेहद ख़ूबसूरती से स्क्रीन पर उतारा था । एक एक पात्र का दर्द बँटवारे के चालीस साल बाद उन दिनो फिर से इंसानी चेहरों पर दिखाई देने लगा था । हालाँकि भीष्म साहनी दस वर्ष पूर्व ही यह उपन्यास लिख चुके थे मगर आम हिंदुस्तानी के दिल तक वह पहुँचा निहलानी और उनकी सशक्त टीम के माध्यम से । बँटवारा बेशक ज़मीन पर रेखा खींच कर हुआ था मगर उसने इंसानी दिलों पर भी छुरी से इतनी गहरी लकीर खींची थी कि फिर कभी मिट ही नहीं सकी ।
बँटवारे की पृष्ठभूमि पर लिखी गई कहानियों, कविताओं और उपन्यासों ने बेशक मानवता के तार तार होने की इस भयंकर त्रासदी को बख़ूबी संजोया है मगर लाखों लाख कहानियाँ फिर भी एसी हैं जो न कभी कही गईं और न कहीं सुनी गईं । मंटों, कृष्णा सोबती , ख़ुशवंत सिंह , भीष्म साहनी , अमृता प्रीतम और असग़र वजाहत जैसों की कहानियाँ, कवितायें और उपन्यासों में बहुत कुछ कहा गया है मगर फिर भी बहुत कुछ आज भी एसा है जो अनकहा है । हज़ारों लाखों कहानियाँ मनों में दबी पड़ी हैं और न जाने कितनी कहानियों के पात्र गुमनाम दुनिया से रूखसत भी हो चुके हैं । एसी ही एक कहानी आज मेरी निगाह से गुजरी ।
हुआ यूँ कि उर्दू शायरों और अदबी लोगों की फ़ेसबुक वाल टटोलते टटोलते पाकिस्तान के एक पत्रकार की वाल पर चला गया जहाँ एक बेहद पुरानी सी दुकान के साथ उसने उर्दू में एक पोस्ट लिखी हुई थी । उत्सुकतावश अनुवाद किया तो पता चला कि यह दुकान बलूचिस्तान के लोरालई नामक स्थान पर है जो पिछले 73 साल से बंद है और अपने मालिक के आने का इंतज़ार कर रही है । पोस्ट से पता चला कि दुकान एक मुस्लिम की है और उसका किराएदार हिंदू है । बँटवारे के समय जब दंगे फ़साद शुरू हुए तो किराएदार जो कोई पंजाबी कक्कड़ था ने दुकान में ताला लगाया और मकान मालिक को चाबी सौंपते हुए बोला कि जब माहौल ठीक हो जाएगा तब मैं आकर अपनी दुकान फिर खोल लूँगा । दुकान मालिक ने किराएदार से वादा किया कि यह दुकान और उसकी चाबी तुम्हारी अमानत है और जब तुम आओगे , यह दुकान तब ही खुलेगी । मगर माहौल ठीक नहीं हुआ और किराएदार फिर कभी वापिस बलूचिस्तान नहीं जा सका । दुकान का किराया भिजवाना तो दूर उसका फिर कभी दुकान मालिक से सम्पर्क भी नहीं हुआ । उधर इंतज़ार करते करते कई दशक बीत गए और आख़िरकार दुकान मालिक दुनिया से रूखसत हो गया । मरने से पूर्व उसने अपने बच्चों से कहा कि यह दुकान कक्कड़ की अमानत है और भूल कर भी इसका ताला नहीं खोलना । यह ताला तभी खुलेगा जब वो आकर ख़ुद खोलेगा ।
नतीजा यह दुकान आज भी बंद है और उस दुकान मालिक के वारिस आज भी उस कक्कड़ का इंतज़ार कर रहे हैं जो यक़ीनन अब इस दुनिया में नहीं होगा । यहाँ पली बढ़ी उसकी औलादों की उस छोटी और टूटी फूटी किराये की दुकान में कोई रुचि होगी एसी कोई सम्भावना नहीं है मगर इंतज़ार तो इंतज़ार है जो आज भी हो रहा है । ख़ास बात यह है कि अब पूरे इलाक़े में यह दुकान मिसाले वफ़ा के नाम से जानी जाती है । हो सकता है कि साहित्यकारों के समक्ष यह वाक़या किसी कालजयी रचना के लिये कुछ कमज़ोर हो मगर आदमी और आदमियत के लिये यह बहुत मज़बूत वाक़या है जो साम्प्रदायिकता के इस घने अंधकार में रौशनी के विशाल पुंज जैसा ही है ।

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