मत चूके चौहान का राग
रवि अरोड़ा
सुबह उठते ही देखा कि वयोवृद्ध पिता जी परेशान हालत में स्वयं से बातें कर रहे हैं । मामला जानने की कोशिश तो ग़ुस्से में बोले कि मोदी तो नहीं चाहता चीन से लड़ाई हो मगर ये टीवी वाले करवा कर ही मानेंगे । मुझे समझते देर नहीं लगी कि रात भर न्यूज़ चैनल्स की बकवास सुनते रहे हैं और यह उसी का असर है । हालाँकि मैं तो पहले से ही न्यूज़ चैनल्स से बचता हूँ और जब से कोरोना संकट शुरू हुआ है तब से तो उनसे सुरक्षित दूरी ही बना ली है । हेडलाईन जानने के लिए दिन में एक आध बार जब भी टीवी खोलता हूँ तो वहाँ मुझे भी चीन को सबक़ सिखाने वाली घोषणाएँ और स्टाक वीडियोज के साथ लम्बे चौड़े चीन विरोधी कार्यक्रम दिखाई देते हैं । यह ठीक है कि ये न्यूज़ चैनल्स भाट परम्परा के आधुनिक रूप हैं मगर एसा भी क्या दरबारी राग कि अपनी आश्रयदाता की बात को ही काट रहे हैं ?
मोदी जी ने बड़ी समझदारी का परिचय दिया है जो बीस जवानों की शहादत के बावजूद अपने बयान में चीन का नाम भी नहीं लिया , उसे लाल लाल आँख दिखाना और घुसकर मारने की धमकी देना तो दूर की बात है । चीन के राष्ट्रीय मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने जिस तरह से पाकिस्तान और नेपाल के साथ मिल कर भारत के ख़िलाफ़ तिकड़ी बनाने की बात की है भारत की ओर से फूँक फूँक कर कदम रखना ज़रूरी भी था । बेशक यह मोदी जी की उस छवि के उपयुक्त नहीं है जो पिछले छः साल में स्वयं उनके , उनके समर्थकों और दरबारी न्यूज़ चैनल्स ने बनाई है । ख़ास तौर पर उनका यह कहना तो इनके घोर समर्थकों को भी हज़म नहीं हुआ कि चीन ने सीमा का अतिक्रमण नहीं किया है । उनके इस बयान के बाद यह सवाल उठना लाज़िमी है कि यदि चीन हमारी सीमा में नहीं घुसा तो फिर यह ख़ूनी संघर्ष कहाँ हुआ ? क्या भारतीय सेना चीनी क्षेत्र में अनधिकृत रूप से घुसी थी ? मोदी जी ने कहा कि हमारा कोई सैनिक चीन ने बंधक नहीं बना रखा मगर हमारी सेना ने कहा कि हमारे दस फ़ौजी चीन ने बंधक बना लिए थे और उन्हें अब छोड़ दिया गया है । यह भी अच्छा हुआ की हमारे किसी नेता ने एक सिर के बदले दस सिर लाने जैसा भड़काऊ बयान भी नहीं दिया । सर्जिकल स्ट्राइक जैसी बातें न करना भी शांति स्थापित करने के लिए ज़रूरी था । बात बहादुरी अथवा कायरता की नहीं वरन मौक़े की नज़ाकत की है । कोरोना संकट के साथ जूझते हुए दूसरा कोई और मोर्चा खोलना क़तई देश के हित में नहीं है मगर ये सब बातें हमारे न्यूज़ चैनल्स को क्यों समझ नहीं आ रहीं ?
कालेज के ज़माने में चारण व भाट परम्परा , भाट और दरबारी कवियों पर विस्तार से पढ़ा था । हज़ारों सालों से हमारे राजा महाराजा मनोरंजन और अपने अहं की तुष्टि के लिए अपने दरबार में कवियों को भी रखते थे । इन कवियों की दरबारों में बड़ी पूछ होती थी । उनके प्रशस्तिगान, और राजा के गुणगान से जनता के बीच भी यही संदेश दिया जाता था कि हमारा राजा बहुत विद्वान, दयालु और वीर है । दरबारी कवि द्वारा गड़ी गई छवि ही इतिहास में दर्ज हो जाती थी और प्रजा भी अपने राजा को सचमुच वैसा मान लेती थी । राजा कनिष्क के दरबार में नागार्जुन और हर्षवर्धन के राज में बाणभट्ट अपने राजा से भी अधिक प्रसिद्ध हुए । हालाँकि कालीदास रहीम , घनानंद और अमीर खुसरो भी दरबारी कवि थे मगर उनका क़द इस छवि से अधिक बड़ा था । पृथ्वीराज चौहान के बाबत इतिहास बेशक कुछ भी बताये मगर उनके चाहने वाले तो वही सच मानते हैं जो चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो में लिख दिया । लोकतंत्र के आधुनिक राजा भारतीय मानस को भली भाँति समझते हैं और उन्होंने दरबारी कवि की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी इन न्यूज़ चैनल्स वालों को दी है । एक आध को छोड़कर बाक़ी पूरी ईमानदारी से अपने इस कर्तव्य का पालन भी कर रहे हैं । मगर अब चीन के मामले में ये अपने राजा से भी आगे आगे क्यों चल रहे है ? कहीं एसा तो नहीं कि ये लोग ख़ुद को सचमुच चंदबरदाई ही समझने लग गये हों और इसी लिये चिल्ला रहे हों- चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान।ज़रा बच के चौहान साहब ।