राजनीतिक रथयात्राएँ

रवि अरोड़ा
अपना विकास अथवा विनाश सबको दिखता है । देश की तरक़्क़ी अथवा दुर्गति भी देर सवेर पता चल ही जाती है बहुत कम मौक़े आते हैं जब आपको पता लगता है कि आपका समाज कहाँ जा रहा है , आगे अथवा पीछे ? यक़ीनन आज एसा ही एक दिन है । सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वीकृति के संकेत मिलते ही आज पुरी में जगन्नाथ यात्रा शुरू हो गई । अदालती आदेश के चलते पाँच सौ सेवकों को ही रथ खींचने की अनुमति मिली और शेष भक्तों को घरों से बाहर न निकलने देने के लिए पुरी शहर ही नहीं वरन पूरे राज्य में कर्फ़्यू जैसा माहौल रहा । नौ दिन तक चलने वाली यह यात्रा अपने पहले दिन तो नियम क़ानूनों में बंधी दिखी मगर शेष आठ दिन क्या होगा यह किसी को पता नहीं । हालाँकि राज्य सरकार ने पचास पलाटून पुलिस तैनात की हुई है लेकिन लाखों श्रद्धालुओं के समक्ष यह लगभग पंद्रह सौ पुलिस कर्मी कितने सफल होंगे , यह अभी नहीं कहा जा सकता ।
अब आप पूछ सकते हैं कि इस एतिहासिक रथयात्रा का समाज के आगे-पीछे जाने से क्या मतलब ? यह तो धार्मिक परम्परा है और ढाई हज़ार साल से भक्तों द्वारा धूमधाम से निभाई
जा रही है और इसमें नया क्या है ? आपका सवाल अपनी जगह दुरुस्त है मगर इस बार इसमें नया यह है कि कोरोना संकट के चलते इस बार रथयात्रा पर रोक थी । मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा और वहाँ केंद्र के सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पेश होकर कहा कि यह यात्रा सदियों पुरानी परम्परा का हिस्सा है और इस परम्परा को तोड़ा नहीं जा सकता । सुप्रीम कोर्ट ने मामले को राज्य सरकार पर छोड़ दिया और राज्य सरकार ने चुटकियों में अनुमति दे दी । देश के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, अन्य केंद्रीय मंत्रियों और अनेक राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी तुरंत बधाई संदेश जारी कर दिये । कई मुख्यमंत्रियों ने रथयात्रा के टेलिविज़न पर सीधे प्रसारण को देखते हुए अपनी तस्वीरें भी जारी की हैं । गुजरात के मुख्यमंत्री रुपाणी तो राज्य के एक मंदिर में हो रही रथयात्रा में शामिल भी हुए । हालाँकि प्रदेश के हाईकोर्ट के जस्टिस अपने फ़ैसले में रथयात्रा की अनुमति देने से इनकार करते हुए कह चुके हैं कि महामारी के चलते एक साल जगन्नाथ रथयात्रा नहीं निकलेगी तो भक्तों का विश्वास ख़त्म नहीं हो जाएगा ।
देश में एसा पहली बार नहीं हो रहा कि तमाम राजनीतिक दलों में धार्मिक भावनाएँ हिलोरे मार रही हों । आर्थिक मुद्दों से फिसल कर दशकों तक जातियों की परिक्रमा करने वाली देश की राजनीति अब धर्म और धार्मिक प्रदर्शन पर जा अटकी है । पिछले कई लोकसभा चुनाव धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर ही लड़े और जीते गये हैं । बेशक इसकी शुरुआत कांग्रेस ने की और मज़ारों पर चादर चढ़ाने के टोटके से छुप छुपा कर इसका श्रीगणेश किया। जनसंघ और भाजपा इस मामले में बहुत ईमानदार हैं कि उन्होंने अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को कभी छुपाया नहीं । बड़ी आबादी वाले उत्तर प्रदेश और बिहार के कथित लोहियावादियों ने भी कभी अपनी मुस्लिम परस्ती को पर्दे में नहीं रखा मगर कांग्रेस अभी तक तय ही नहीं कर पाई कि उसे सेकुलर राजनीति करनी है अथवा धार्मिक ? मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहते हुए कह गए कि देश के संसाधनों पर मुस्लिमों का पहला हक़ है और उन्ही की पार्टी के युवराज जनेयु पहन कर मंदिरों में कीर्तन करते नज़र आये ।
बेशक अब देश की राजनीति धर्म की कुंज गलियों के चक्कर काट रही हो मगर आज़ादी के कई दशक तक एसा नहीं था । धर्मनिरपेक्षता पहले प्रधानमंत्री के लिए केवल संवैधानिक शब्द नहीं था और न ही केवल राजनीतिक के लिए उन्होंने इसे अपनाया । उसे दौर में धर्मनिरपेक्षता केवल उनकी ही नहीं वरन पूरे मुल्क की जीवन शैली थी । बताते हैं कि एक मुस्लिम देश की यात्रा पर जाने के समय में तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने उनसे कहा कि वहाँ के राष्ट्राध्यक्ष के लिए क़ुरान की एक प्रति ले जाइये , उन्हें अच्छा लगेगा । मगर पंडित नेहरू ने यह कह कर इनकार कर दिया कि मैं एक सेकुलर देश का प्रधानमंत्री हूँ और कोई धार्मिक चीज़ कैसे किसी को भेंट कर सकता हूँ । आज उसी देश में सेकुलर शब्द एक गाली का रूप लेता जा रहा है और तमाम धार्मिक आयोजनों के लिये मरे जा रहे ये नेता यह गाली संविधान को दे रहे हैं ।

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