मुखौटे के नीचे

रवि अरोड़ा
लीजिये भारतीय लोकतंत्र के चेहरे से सेकुलरिज़्म का आख़िरी मुखौटा भी हट गया । अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास पर कांग्रेस पार्टी जिस तरह ख़ुशी से झूमी है , उससे बची खुची उम्मीद भी जाती रही । हालाँकि धर्मनिरपेक्ष तो कांग्रेस कभी भी नहीं थी मगर इसका ढोंग तो वह ठीक ठाक तरीक़े से पिछले 73 सालों से कर ही रही थी । कांग्रेस ही क्यों भाजपा को छोड़ कर हमारी तमाम राजनीतिक पार्टियाँ यही ड्रामा करती रही हैं मगर अब सबके चेहरे से नक़ाब उतर गया है । ज़ाहिर है कि संविधान में लिख देने भर से कोई देश धर्मनिरपेक्ष नहीं हो जाता, इसे व्यवहार में भी लाना पड़ता है। अब यह भी पूरी तरह से साबित हो चुका है कि धार्मिक उन्माद में आकंठ डूबे देश में सेकुलरिज़्म जैसे प्रयोग छद्म रूप से बेशक सफल नज़र आयें मगर ज़मीनी स्तर पर तो हक़ीक़त कुछ और ही रहती है ।
बताते हैं कि संविधान लिखे जाने से पूर्व ही देश में धर्मनिरपेक्षता पर धड़ेबाज़ी शुरू हो गई थी । सरदार पटेल सोमनाथ के मंदिर का जीर्णोद्धार करवाना चाहते थे मगर पंडित नेहरु को भारत की सेकुलर छवि की चिंता थी । सरदार पटेल के निधन के बाद जब तत्कालीन राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद इस मंदिर का उद्घाटन करने वाले थे तब भी नेहरु ने उन्हें धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर कार्यक्रम में जाने से मना किया था और बक़ायदा सभी मुख्यमंत्रियों को भी पत्र लिख कर इस कार्यक्रम में न जाने की सलाह दी थी । मगर उन्ही नेहरु जी की बेटी इंदिरा गांधी ने मुस्लिमों को ख़ुश करने को 1973 में हज यात्रा पर सब्सिडी की शुरुआत कर दी । इंदिरा गांधी ने ही मज़ारों पर चादर चढ़ाने और भिजवाने की परम्परा शुरू की । मंदिरों में जाकर पूजा अर्चना की परम्परा भी उन्ही की देन है । उन्ही इंदिरा गांधी के बेटे राजीव गांधी राजीव गांधी ने 1986 में मुस्लिम तुष्टिकरण को शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला उलट दिया और हिंदुओं को भी ख़ुश करने की ग़रज़ से राम मंदिर के ताले खुलवा दिए । साल 1992 में जब बाबरी मस्जिद गिराई गई तब भी केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी जिसकी इस मामले में मौन सहमति पूरी दुनिया ने महसूस की । राम मंदिर के निर्माण को 1992 में एक अध्यादेश भी तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव लाये थे । कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व की बात करें तो राहुल गांधी के जनेयुधारी होने का दावा और पिछले चुनावों मंदिरों में भजन कीर्तन करना पूरे देश को याद है और अब वही राहुल उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा मंदिर निर्माण पर सबको बधाइयाँ दे रहे हैं ।
धर्मनिरपेक्षता की बात करें तो देश में इकलौती भाजपा ही ईमानदार नज़र आती है । वह खुल कर अपने को हिंदुओं की पार्टी कहती है । आप तौर पर वह मुस्लिमों को न तो टिकिट देती है और न ही उसके प्रत्याशी मुस्लिम इलाक़ों में वोट माँगने जाते हैं । वह साधु सन्यासियों को मंत्री-मुख्यमंत्री बनाती है और अघोषित रूप से एसी ही नीतियों को अमल में लाती है जिससे उसके हिंदू मतदाता ख़ुश हों । धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले देश में एक मंदिर के नाम पर वह आंदोलन चलाती है और फिर उसे भुना कर कई बार अपनी सरकारें बनाती है । उसके मेनिफ़ेस्टो में जो कुछ भी होता है वह भी मूलतः हिंदुओं के लिए होता है । मुस्लिमों के लिए तीन तलाक़ जैसा वह कुछ करती भी है तो उसका उद्देश्य केवल हिंदू मतदाताओं को ख़ुश करना ही होता है । सीएए और एनआरसी जैसे उसके तमाम मुद्दे इसी दिशा की ओर जाते हैं । उधर, क्षेत्रीय दलों की बात करें तो अधिकांश प्राइवेट लिमिटेड कम्पनियाँ ही हैं जो अपने मालिक की जाति प्लस मुस्लिम वोट के सहारे अपनी दुकान चलाती हैं । माया, मुलायम या लालू किसी का भी नाम लो , सबका एक ही फ़ार्मूला है । मगर इस बार इन नेताओं का भी मुँह बंद है । दरअसल बहुसंख्यक हिंदू मतदाताओं का ख़ौफ़ उन्हें भी है । ले देकर ओवैसी जैसे मुस्लिम नेता ही हैं जो मोर्चा सम्भाले हुए हैं मगर उनका काम भी भाजपा के प्रपंच में सहयोग करना भर ही है । चलिए यह सब तो हो गया मगर सवाल यह है कि भारतीय लोकतंत्र के चेहरे से जो धर्मनिरपेक्षता का यह मुखौटा हटा है तो उसके नीचे से क्या निकलेगा ? कोई और मुखौटा या फिर कुछ और ?

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