मां काली या पेट खाली !

रवि अरोड़ा
कई दशकों तक विभिन्न अखबारों में कलम घसीटने के बावजूद मैं यह समझने में पूरी तरह नाकाम हूं कि आजकल के संपादक यह कैसे तय करते हैं कि कौन सी खबर खबर है और कौन सी नहीं है? वे किस आधार पर यह फैसला लेते हैं कि यह खबर लीड स्टोरी है और यह खबर केवल स्थान पूर्ति योग्य अथवा हाजरी भर है ? यह ठीक है कि खबरों की दुनिया सदैव आदमी को कुत्ते के काटने पर नहीं वरन कुत्ते को आदमी के काटने की ओर अधिक आकर्षित होती रही है मगर अब तो खबरों से आदमी सिरे से गायब होता नज़र आ रहा है और खबरों पर कुत्ते ही कुत्ते छाए हुए हैं ? बेशक ख़बर कोई शय होती नहीं कि रूप, रस, गंध अथवा माधुर्य से उसे मापा जाए , उसे तो सूचना, जागरूकता और मनोरंजन की कसौटी पर चढ़ना होता है मगर अब ये क्या हो रहा है कि केवल आग लगाने को ही खबर माना जा रहा है ?

गुरुवार को तमाम अखबारों की लीड स्टोरी काली विवाद था । टीवी चैनल पर भी सिर्फ और सिर्फ काली विवाद, उसकी जनक फिल्मकार लीना और महुआ मोइत्रा छाई हुई हैं। जबकि गुरुवार को ही एक दिल दहला देने वाली खबर आई कि भारत के बीस करोड़ लोग आजकल रात को भूखे पेट सोते हैं। यही नहीं मुल्क में तीन हज़ार बच्चे प्रतिदिन भूख से मर रहे हैं। दरअसल संयुक्त राष्ट्र ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी का भुखमरी का विश्वव्यापी आंकड़ा जारी किया है और उसी के अनुरूप दुनिया भर में भूखे पेट सोने वालों में एक चौथाई भारतीय हैं। हैरानी की बात यह रही कि यह खबर या तो मीडिया से गायब रही अथवा जिन्होंने इसे छापा, उन्होंने भी इसे स्थान पूर्ति से अधिक महत्व नहीं दिया ।

अजब माहौल है। मीडिया को भड़काने के सिवा और कोई काम ही नहीं है। कभी हिजाब तो कभी हलाल, कभी कश्मीर फाइल्स तो कभी लाउड स्पीकर, कभी ज्ञानवापी तो कभी नूपुर शर्मा । थमने का नाम ही नहीं ले रहे । दो दो कौड़ी के आदमियों को हीरो बना रहे हैं। यकीनन उदयपुर और अमरावती की नृशंस हत्याएं डराती हैं मगर यह तय कर लिया जाए कि हमें इस डर से बाहर ही नहीं आने देना , यह कहां तक जायज़ है? देश में कानून का राज है और अपराधियों से निपटने में कानून सक्षम है, फिर क्यों मीडिया सारी कमान अपने हाथ में चाहता है? नूपुर शर्मा ही नहीं, किसी का भी गला काटने की धमकी देने वाला शख्स कड़ी से कड़ी सज़ा का हकदार है मगर यहां तो उन्हे हीरो ही बनाया जा रहा है। अजमेर शरीफ का खादिम सलमान चिश्ती दो कौड़ी का आदमी था मगर अब पूरी दुनिया उसे जान गई है। अयोध्या के महंत राजू दास को उसके मोहल्ले वाले भी नहीं जानते थे मगर अब वह हिंदुओं का बड़ा अलमबरदार मान लिया गया है। पता नहीं क्या एजेंडा है कि मीडिया यह सवाल ही नहीं पूछ रहा कि देश में धार्मिक भावनाएं केवल नेताओं और धर्म की दुकान चलाने वालों की ही क्यों आहत होती हैं ? क्या यही दस पांच हज़ार लोग ही देश हैं ? उदयपुर और अमरावती की वारदातें ही नहीं मौत किसी की भी हो, दुखदाई है फिर रोजाना भूख से मर रहे तीन हजार बच्चों के बाबत आक्रोश क्यों नहीं ? देवी काली के नाम पर पूरे देश को सिर पर उठा लेने वाले खाली पेट वालों की ओर मुंह करने तक को क्यों तैयार नहीं ? बेशक काली मां पूजनीय हैं और उनका अपमान नहीं होना चाहिए मगर असल मुद्दा तो मां काली नहीं पेट खाली है।

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