ब्यास से लौट कर

रवि अरोड़ा

पहली बार राधा स्वामी सत्संग ब्यास जाना हुआ । अन्य धार्मिक स्थलों से बिलकुल अलग ही लगा यह स्थान । राधा स्वामियों ने अमृतसर के निकट पूरा शहर ही बसा रखा है वहाँ । यूँ तो देश-विदेश में राधा स्वामियों के सैंकड़ों आश्रम हैं मगर अपने इस मुख्यालय में बाबा को सुनने पाँच से सात लाख भक्त चुटकियों में आ जुटते हैं । पचास हज़ार से अधिक बाबा के भक्त सेवा कार्य के लिए देश भर से आकर हमेशा वहाँ मौजूद रहते हैं । धर्म के नाम पर कोई लूटपाट नहीं , कोई चंदाखोरी नहीं । हर जगह साफ़-सुथरी और व्यवस्थित । ब्यास से लौटते हुए कई सवाल साथ हो लिए । देश भर में लाखों मंदिर , गुरुद्वारे , मस्जिद और अन्य धार्मिक स्थल होते हुए भी लोगबाग़ राधा स्वामी , निरंकारी और एसे तमाम डेरों की ओर खिंचे चले आते हैं ? एसी क्या वजह है कि देश की हर गली-मोहल्ले और गाँव में बाबाओं के डेरे व मठ खुले हुए हैं ? कहीं मूर्तियों की पूजा हो रही है कहीं निराकार प्रभु की तो कहीं ख़ुद इन बाबाओं की । क्या यह हज़ारों सालों से चली आ रही सूफ़ी मत की ही कोई धारा है अथवा स्थापित पूजा पद्धतियों से कोई बग़ावत ? गुरु को ईश्वर से बड़ा मानने की सांस्कृतिक विरासत का कहीं चालाकीपूर्ण शोषण तो नहीं है यह ? पौराणिक कहे जाने वाले मंदिरों में हो रही जम कर लूटपाट , पंडागिरी , वीआईपी दर्शनों , प्रसाद और पूजा सामग्री के नाम पर ठगी से समाज में फैली नाराज़गी है क्या यह ? क्या सचमुच यह धार्मिक स्थल हैं भी अथवा कोई कम्यून हैं ? यदि हैं तो क्यों धर्म के भुलावे में लोग कम्यून से जुड़ रहे हैं और उसे अपनी निजी पहचान बनाए दे रहे हैं ? कैसे तो देश में हज़ारों कम्यून उग आए और एसा सिर्फ़ हिंदू धर्म में ही क्यों हो रहा है ? इतनी विविधता ? धर्म के भीतर सैंकड़ों धर्म ? क्या हम शुरू से ही एसे थे ? पुनर्नवा ? पल पल स्वयं को परिमार्जित करने वाले ? वग़ैरह वग़ैरह ।

बेशक आज चहुँओर मूर्ति पूजा ही दिख रही है । मगर हम सदा से तो एसे कहाँ थे ? सयाने बताते हैं कि वैदिक काल के पतन के बाद और बौद्ध व जैन धर्म के प्रभाव में आकर हमने अपने देवी देवताओं की पहले पहल मूर्तियाँ बनाईं । वेद , उपनिषद और स्वयं गीता में मूर्तिपूजा कहीं नहीं है । हम वैष्णव अथवा शैव तो थे , शक्तिवाद और स्मृतिवाद से तो जुड़े थे मगर मूर्तिपूजक नहीं थे । मूर्ति पूजक से अधिक मूर्तिभंजकों का समाज थे हम । शुरुआती दौर में हमने ग्रहों , सितारों और नक्षत्रों की मूर्तियाँ बनाईं और फिर अपने पूर्वजों और अवतारों की । काल्पनिक देवी-देवता और कुल देवी व देवता तो बहुत बाद में आए । हज़ारों साल तक हम नाग , यक्ष और इंद्र से डरते रहे । कृष्ण के आगमन के बाद यह कम हुआ मगर आज भी किसी ना किसी रूप में मौजूद है । युगों तक हम अद्वैतवाद और एकेश्वरवाद की छाया में रहे और किसी ना किसी रूप में आज भी थोड़े बहुत हैं । आख़िर कितने रूप हैं हमारे धर्म के ? हम कहीं ठहर क्यों नहीं रहे ? कैसे हम नए नए देवी देवता घड़ रहे हैं और बहुत जल्द उन्हें विश्राम भी दे रहे हैं । देखते ही देखते संतोषी माँ आईं और समाज में उपजे असंतोष के साथ गुम भी हो गईं । अनिश्चितता बढ़ी तो शनि मंदिर खुल गए और अब आर्थिक प्रगति की अटूट चाह परवान चढ़ी तो वैभव लक्ष्मी की पूजा होने लगी ।

भाषा , समाज , वनस्पति और जीव जगत की जीवंतता तो सर्वमान्य है मगर क्या धर्म भी जीवंत हो सकता है ? लिखे हुए शब्दों से इतर , पैग़म्बरों के संदेशों व किताबों तक सिमटे धर्मों से दूर इंसानी कलेजों में आख़िर कैसे जीवित रह लेता है हमारा धर्म ? अपने धर्म और उसकी हज़ारों-हज़ार धाराओं को समझने की लाख कोशिशों और असफलताओं के बीच अब मैं उन्हें टुकुर टुकुर देख रहा हूँ जो हिंदू कहे जाने वाले लगभग एक अरब लोगों को एक झंडे और एक डंडे के नीचे लाने का सपना पाले हुए हैं । पता नहीं एसे सपने लोग कैसे देख लेते हैं । अपनी समझ से तो बाहर है । आपकी समझ में कुछ आए तो बताइएगा ज़रूर ।

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