बुलंद दरवाज़ा और विचार

रवि अरोड़ा

हाल ही में शामली जाना हुआ । विकास की दौड़ में पीछे छूट गए सदियों पुराने इस क़स्बे में एक हवेली नुमा मकान के आगे मेरे पाँव थम गए । मकान का गेट कम से कम पचास फ़ुट ऊँचा रहा होगा । पूछने पर पता चला कि यह किसी नवाब अथवा राजा का नहीं बल्कि पुराने ज़माने के किसी सेठ का घर था । अब उनके ख़ानदान के कई परिवार इस घर में रहते हैं । ज़्यादा पूछताछ करने पर पता चला कि सेठ जी ने घर का द्वार इसलिए इतना ऊँचा बनवाया था कि उससे हाथी भी गुज़र सके और ख़ास बात यह हो कि उस पर बैठ कर सेठ जी जब घर आयें तो उन्हें सिर न झुकाना पड़े । हालाँकि सिर ऊँचा रहने का महात्म मैं समझता हूँ मगर सेठ जी की यह सनक मुझे थोड़ा हैरान कर गई । आप भी कहेंगे कि इसमें हैरानी वाली क्या बात है , इस सनक के सैंकड़ों क़िस्से हम सबने सुने हैं । इतिहास भरा पड़ा है इनसे । देश भर में पुराने क़िले देखने जाओ तो वहाँ भी सिर ऊँचा रखने का फ़ितूर बुलंद दरवाज़ों के रूप में दिखाई देगा । आप ठीक कहते हैं मगर फिर भी क्या आपको नहीं लगता कि एक दौर की सिर ऊँचा रखने की यह फ़ितूर कितनी सामंती , खर्चीला और ग़ैरज़रूरी था ? शान ओ शौक़त दिखान का भला सिर ऊँचा होने से क्या सम्बंध ?

फ़तहपुर सीकरी कई बार गया हूँ । क़िले में सबसे हैरान करने वाली बात यह नज़र आती है कि लम्बे चौड़े दीवाने आम और दीवाने ख़ास के बावजूद रानी का महल बहुत छोटा है । बेडरूम तो बारह बाई बारह का ही होगा ।आज की कोठियों के सर्वेंट रूम जितना । जो कुछ है वह बुलंद दरवाजा ही है । दिल्ली का लालक़िला भी विशाल परिसर के बावजूद फ़ोर बेडरूम सेट ही तो है । कोई मेहमान आ जाए तो उसे ठहरने को जगह नसीब न हो मगर बुलंद दरवाज़े यहाँ भी आते जाते को चिढ़ाते हैं । रौब झाड़ते हैं कि सावधान ! भीतर रहने वाला कोई मामूली आदमी नहीं है । उधर , क़ुतुब मीनार और दुबई की बुर्ज ख़लीफ़ा जैसी इमारतें अपनी ऊँचाई का हम पर रौब गाँठने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही हैं । वास्तु शैली के बाबत मेरा ज्ञान बेहद सीमित है मगर इतना तो मैं जानता ही हूँ कि सिंधु घाटी की सभ्यता , प्राचीन भारत , मध्ययुगीन मुस्लिम और ब्रिटिश वास्तुकला सभी में ऊँचे ऊँचे दरवाज़ों पर ज़ोर दिया गया है । बेशक आधुनिक वास्तुकला में अब ऊँचे दरवाजे बेमानी हो गए हैं और सारा ज़ोर एलिवेशन के अन्य तरीक़ों पर है मगर फिर भी उनमें भी कुछ न कुछ बुलंद तो अब भी है । अजी आदमी का मूल स्वभाव तो वही है न । वक़्त बदल जाता है , तरीक़े बदल जाते हैं मगर चीज़ें वही रहती हैं । अब हैसियत दिखाने को ऊँचे दरवाज़े नहीं घर के आगे लम्बी गाड़ी खड़ी करने का चलन है । जितनी लंबी गाड़ी उतना बड़ा आदमी ।

इंसानी सफ़र में एसा दौर भी था जब बाज़ुओं की ताक़त ही सब कुछ थी मगर अब बाज़ुओं की ताक़त की कोई पूछ नहीं है । मज़बूत शरीर वाले तो होटलों और रेस्टोरेंट में बाउंसर का काम कर रहे हैं । बेशक आज पैसे वालों का दौर है मगर ग़ौर से देखें तो पैसे से आगे निकलती दिख रही है इंफ़ोरमेशन यानि सूचना । या यूँ कहिए कि जिसके पास अच्छी इंफ़ोरमेशन है , पैसा उसी के पास है । अब इंफ़ोरमेशन तकनीक से जुड़ी हो अथवा भावी योजनाओं से , बात एक ही है । ख़ानदानी रईस अब कहाँ दिखते हैं । सात पीढ़ियाँ बैठ कर खायें जैसे मुहावरे भी अब बेमानी हो चले हैं । दुनिया के तमाम बड़े रईस आज वही लोग हैं जो एक ही पीढ़ी में बने हैं और उसकी वजह भी यही है कि वे इंफ़ोरमेशन से मालामाल हैं । आज भी उनका सारा ज़ोर नई नई इंफ़ोरमेशन एकत्र करने पर रहता है । जो इंफ़ोरमेशन में पिछड़ा , वही डूब गया । बस अब कुछ और नए वक़्त का इंतज़ार है । उस दौर का जब पूरी तरह क़ाबलियत का बोलबाला होगा । जो क़ाबिल होगा वही समाज में पूछा जाएगा , उसी की धाक होगी । बुलंद दरवाज़े बहुत देख लिए अब तो बस तो बुलंद विचारों का दौर आने वाला है ।

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