न ज्ञान न बुद्धिमत्ता

रवि अरोड़ा
पता नहीं किसने बताई थी मगर यह बात बचपन से ही दिमाग़ में बैठ गई कि ज्ञान नहीं भी हासिल कर सको तो कोई बात नहीं मगर बुद्धिमत्ता का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिये । सामने वाले को परखने का अपना पैमाना भी यही रहता है कि उसके पास नॉलेज अधिक है या विस्डम । कोरोना संकट के इस काल में मैं शर्त लगा कर कह सकता हूँ कि हमारे सत्तानशीं लोगों के पास न तो नॉलेज है और न ही विस्डम । नॉलेज यानी ज्ञान होता तो उन्हें पता होता कि यूँ रातों रात लॉकडाउन लगाने से करोड़ों ग़रीब गुरबा लोगों के लिये नारकीय हालात पैदा हो जाएँगे और यदि उनके पास विस्डम यानी बुद्धिमत्ता होती तो उन्हें दो महीने नहीं लगते इस करोड़ों लोगों की सुध लेने में ।
मेरे शहर के घंटाघर रामलीला मैदान में न जाने कहाँ कहाँ से आज दस हज़ार से अधिक प्रवासी आ जुटे । प्रदेश सरकार को अब इनकी सुध आई है और उन्हें स्पेशल ट्रेन से उनके जनपद भेज रही है । रामलीला मैदान की जो भी ख़बरें दिन भर मिलीं वह हिला देने वाली थीं । किसी ने बताया कि वहाँ आदमी पर आदमी चढ़ा हुआ है तो किसी ने बताया कि लॉकडाउन और सोशल डिसटेंसिंग की एसी धज्जियाँ उड़ रही हैं , जैसी अब तक़ किसी ने नहीं देखीं । किसी ने बताया कि श्रमिक स्पेशल ट्रेनों के पास जारी करने के लिए सरकारी स्टाफ़ कम है तो किसी ने बताया कि बिलावजह काग़ज़ी कार्रवाई से श्रमिकों को हलकान किया जा रहा है । हालाँकि राहत भरे एसे समाचार भी मिले कि सिविल डिफ़ेंस के साथ साथ सेवा भारती के भी कार्यकर्ता इन श्रमिकों के खाने पीने की यथासंभव व्यवस्था कर रहे हैं । कई अन्य संस्थाओं के लोग भी बिस्कुट, पानी और जूस आदि की बोतलें बाँट रहे हैं । मगर मूल सवाल तो यही है कि एसी नौबत आई ही क्यों ?
देश भर से प्रवासी श्रमिकों की जो भी ख़बरें आ रही हैं वह साबित कर रही हैं कि मुल्क में लॉकडाउन एक मज़ाक़ बन कर रह गया है । रोज़ी-रोटी छिनने से अधिक श्रमिक ख़ुद को क़ैद कर लिए जाने से आक्रोशित हैं । सूरत में कई बार ये श्रमिक तोड़फोड़ और सड़क जाम कर चुके हैं । मथुरा में राज मार्ग पर आगज़नी और सहारनपुर में पुलिस से मुठभेड़ के समाचार भी सुर्खियों में हैं । कई स्थानों पर छुटपुट लूटपाट की भी ख़बरें आई हैं । पुलिस-प्रशासन द्वारा किये श्रमिकों के उत्पीड़न के वीडियो दिन भर सोशल मीडिया पर वायरल होते रहते हैं । सड़कों और रेल की पटरियों पर मरने वालों की गिनती रोज़ बढ़ रही मगर नहीं बढ़ रही तो वह है इन श्रमिकों को उनके घर पहुँचाने की गति ।
देश का श्रमिक और ग़रीब गुरबा आदमी बहुत धैर्य वाला है । सरकार की बेवक़ूफ़ी को भी उसने अपना भाग्य समझ कर बर्दाश्त कर लिया । मगर वह एसा कब तक करेगा कहा नहीं जा सकता । सवाल तो मन में आता ही है कि श्रमिक वर्ग का धैर्य कहीं जवाब दे गया तो ? क्या हमारी सरकारें कल्पना कर पा रही है कि यह स्थिति तब कितनी विस्फोटक होगी ? समझ नहीं आता कि केंद्र और राज्य सरकारें सारे काम छोड़ कर सबसे पहले श्रमिकों की मदद ही क्यों नहीं करतीं ? सरकारी आँकड़े ही बताते हैं कि देश में 12617 यात्री ट्रेनें हैं और उनकी कुल क्षमता लगभग दो करोड़ लोगों को प्रतिदिन ढोने की है । राज्य सरकारों की बसें गिनें तो वह भी लाखों में हैं । क्यों नहीं सभी को श्रमिकों को ढोने पर लगा सकते ? दो दिन में सभी लोग अपने अपने घर पहुँच जायेंगे । कोई टिकिट न हो और न ही कोई रजिस्ट्रेशन हो , जिसे जहाँ जाना है जाओ । क्यों लाल फ़ीताशाही में भीड़भाड़ करते हो ? क्यों लम्बी लम्बी लाइनें , रजिस्ट्रेशन और पास का ड्रामा कर अपने ही हाथों सोशल डिसटेंसिंग की धज्जियाँ उड़ाते हो ? माना ज्ञान का अभाव है मगर बुद्धिमत्ता भी कहीं गिरवी रख दी है क्या ?

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