दलाई लामा

रवि अरोड़ा

हाल ही में अपनी पसंदीदा फ़िल्म ‘सेवन ईयर्स इन तिब्बत’ एक बार फिर देखी । इस फ़िल्म को जब भी देखता हूँ , हर बार दलाई लामा के प्रति श्रद्धा पहले से अधिक बढ़ जाती है । हालाँकि व्यक्तिगत रूप से मैं कभी भी उनसे नहीं मिला मगर उनके साक्षात्कार और भाषण विभिन्न माध्यमों से देख-सुन अथवा पढ़ कर एसे लगता है जैसे उन्हें बहुत नज़दीक से जानता हूँ । मुझे लगता है बुद्ध, महावीर और गांधी के इस देश में जन्मे हर व्यक्ति को उनकी विचारधारा अपनी सी ही लगती होगी । ख़ैर, पहले उन लोगों को इस फ़िल्म के बारे में बता दूँ , जिन्होंने यह फ़िल्म अभी तक नहीं देखी । आष्ट्रेलियाई पर्वतारोही हेनरिच हेरर की आत्मकथा पर वर्ष 1997 में बनी यह फ़िल्म दुनिया भर में धूम मचा चुकी है । फ़िल्म में हेरर बने हॉलीवुड स्टार ब्राड पिट भारत में अंग्रेज़ों की क़ैद से भाग कर तिब्बत की राजधानी ल्हासा पहुँचते हैं और वहाँ तेनजिन ग्लात्सो यानि 14वें दलाई लामा के सम्पर्क में आते हैं । दलाई लामा उन दिनो बच्चे थे मगर हेरर से अपने संवाद में वे इतना प्रभावित करते हैं कि आध्यात्म के छात्र भीतर तक नहा जाते हैं । हेरर सात साल तिब्बत में रहे और 1934 में उनके सामने ही दलाई लामा को तिब्बत का राष्ट्राध्यक्ष घोषित किया गया था । हेरर की यह आत्मकथा 1954 में छपी थी । बेस्ट सेलर इस किताब की करोड़ों प्रतियाँ बिकीं और विश्व की 54 भाषाओं में इसका अनुवाद भी हुआ । इसी पर आधारित फ़िल्म सेवन ईयर्स इन तिब्बत ने भी ढेरों पुरस्कार बटोरे थे । हालाँकि यह फ़िल्म तिब्बत पर चीन के क़ब्ज़े पर अधिक फ़ोकस करती है मगर दलाई लामा का सिरा दर्शकों के हाथ से अंत तक नहीं छूटता । वैसे स्वयं दलाई लामा भी इस फ़िल्म के मुरीद हैं मानते हैं कि तिब्बतियों का दर्द पूरी दुनिया तक पहुँचाने में इस फ़िल्म ने भी बहुत मदद की है ।

बात फिर दलाई लामा की करूँ तो तिब्बत की स्वायत्ता के लिए आधी सदी से संघर्ष कर रहे दलाई लामा शांति, अहिंसा, अंतर धार्मिक मेल मिलाप, करुणा और प्रेम का संदेश देने वाले जीवित लोगों में शायद सबसे अग्रणी हैं । उनके क़द को मापने के लिए इतना ही काफ़ी है कि ज़ुल्मों की अनवरत गाथा के बावजूद वे चीनियों से नफ़रत नहीं करते और चीन को भी प्रेम संदेश देते हैं । वैसे उन्ही के प्रयासों से संयुक्त राष्ट्र तिब्बत की स्वायत्ता के लिए तीन बार प्रस्ताव पास कर चुका है और दलाई लामा के संघर्ष के सम्मान में उन्हें विश्व शांति के लिए नोबल पुरस्कार भी मिल चुका है । तिब्बत की स्वायत्ता के लिए उनका संघर्ष महात्मा गांधी द्वारा संचालित भारत की आज़ादी के आंदोलन जैसा ही है और उम्मीद की जानी चाहिए कि अंतोगत्वा उन्हें भी सफलता ज़रूर मिलेगी । वर्ष 1959 से भारत के धर्मशाला शहर में निर्वासित जीवन गुज़ार रहे दलाई लामा के भारत में सार्वजनिक जीवन सम्बंधी कार्यक्रम बेहद सीमित होते हैं और मुझ जैसे करोड़ों लोग होंगे जो उनसे मिलने की अभिलाषा में मकलोड़गंज स्थित उनके मठ के कई चक्कर काट आये होंगे मगर उनके दर्शन से वंचित रहे । मैं पिछली बार जब इस शहर में गया तो उनकी एक झलक को मठ के इर्दगिर्द कई घंटे गुज़ारे मगर असफल ही रहा ।

चलिये उसी विषय पर आता हूँ जिस पर बात करने के दलाई लामा का सहारा लेना पड़ रहा है । दरअसल आजकल देश में हो रही घटनाओं से मुझ जैसे करोड़ों लोगों का मन व्यथित है । बच्चियों से कुकर्म और निर्मम हत्या जैसी टप्पल और कठुआ सरीखी वारदातों से अख़बार भरे नज़र आते हैं । लगता ही नहीं कि ये सब इंसानी आबादी में हो रहा है । सब कुछ जंगल जैसा लगता है । मानवता को शर्मसार करने वाली कहानियाँ आस पास बिखरी सी नज़र आती हैं । यह कैसे सम्भव हो रहा है कि दलाई लामा जैसे प्रकाशपुंज के दौर में भी हम अँधियारे में जी रहे हैं । क्या उन जैसी शख़्सियतों की उपस्थिति हमें ज़रा भी प्रभावित नहीं कर रही ? पूरी दुनिया मान रही है कि दलाई लामा इंसान और इंसानियत के लिए लाइट हाउस से कम नहीं हैं मगर हम उनके साथ एक ही देश में रहते हुए भी उनके विचारों से कैसे अछूते हैं ? एसा क्या कभी हुआ है कि कोई महामानव इस दुनिया में आए और उनका दौर समाज के किसी भी काम न आ सके ? हो सकता है कि अंतराष्ट्रीय दबावों के चलते भारत की सरकारें दलाई लामा को हम भारतीयों के क़रीब न आने देती हों मगर उनके विचारों से क्या परहेज़ हैं और क्यों हमें उनसे महरूम रखा जा रहा है ? काश हम दलाई लामा और उनके विचारों के कुछ और क़रीब जा सकते और अपने एक बेहतर इंसान बनने का मार्ग प्रशस्त कर सकते । अधिक नहीं तो कम से कम अमानवता के उस जंगल से तो बचते जो आज हमारे बीच उग आया है ।

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