टाई वालों की दास्ताँ

रवि अरोड़ा
मेरे एक मित्र का बेटा बायज़ू’स कम्पनी में मैनेजर है । स्कूली बच्चों को एप के माध्यम से ऑनलाइन कोचिंग उपलब्ध कराने वाली यह कम्पनी देखते ही देखते घर घर पहुँच गई है और साढ़े तीन करोड़ से अधिक बच्चों ने इस कम्पनी का एप डाउनलोड किया हुआ है । टेलिविज़न पर भी दिन भर शाहरूख खान इसका विज्ञापन करते नज़र आते हैं । कम्पनी में चौबीस हज़ार से अधिक लोगों की टीम है जो लोगों को फ़ोन कर करके अपने एप की वार्षिक सदस्यता बेचती है । मित्र के बेटे ने बताया कि लॉक़डाउन व कोरोना संकट की वजह से कम्पनी के सभी कर्मचारी अपने अपने घरों से ही आजकल काम कर रहे हैं । कम्पनी की सेल्स टीम सुबह साढ़े आठ बजे से काम पर लग जाती है और और रात के दस बजे तक काम करती है । कहने को तो सप्ताह में पाँच दिन काम होता है मगर छुट्टी वाले दिन भी मीटिंग-चीटिंग चलती रहती हैं । कम्पनी का वर्क कल्चर ही कुछ एसा है कि सभी कर्मचारियों को हर घंटे रिपोर्ट करना होता है कि पिछले घंटे में उसने कितने लोगों से बात की, यह बातचीत कितने मिनट चली और उसका क्या परिणाम निकला ? रिपोर्टिंग का क्रम नीचे से ऊपर तक दिन भर चलता है और हर कोई चौबीसों घंटे पंजों के बल खड़ा नज़र आता है । कम्पनी में गाली देने की भी एसी प्रथा है कि हर कोई अपने जूनियर की माँ-बहन के स्मरण से ही बात शुरू करता है । उस पर तुर्रा यह भी है कि जॉब गारंटी नाम की कोई चीज़ कम्पनी में नहीं है । जिस महीने आपका टार्गेट पूरा नहीं हुआ वह महीना आपका कम्पनी में आख़िरी होगा । बेशक कम्पनी अपने कर्मचारियों को बहुत अच्छा भुगतान करती है मगर काम काज की शर्तों के चलते लोग बाग़ कम्पनी में टिक ही नहीं पाते और जब नौकरी छोड़ते हैं अथवा निकाले जाते हैं तो यूट्यूब, ट्विटर और फ़ेसबुक पर जम कर अपनी भड़ास निकालते हैं और वही सब गालियाँ अपने बॉस और कम्पनी को देते हैं जो कभी उन्होंने खाई थीं ।
अकेले बायज़ू’स कम्पनी की ही क्या बात करें देश का पूरा कोरपोरेट कल्चर इसी रंग में रंगा हुआ था । चूँकि कोरोना संकट के चलते लाखों की संख्या में नौकरियाँ गई हैं अतः कम्पनियों की दादागिरी और बढ़ गई है । घरों से काम करने के चक्कर में लोगबाग़ अपने प्रोफ़ेशनल और पर्सनल जीवन के बीच बैलेंस ही नहीं बना पा रहे । सीनियर्स द्वारा गाली देने का कल्चर उस आईटी सेक्टर में सर्वाधिक है जहाँ पचास लाख से अधिक लोग काम करते हैं । पहले दफ़्तर में गालियाँ खानी पड़ती थीं तो निभा भी लेते थे मगर अब परिवार के बीच उन्हें बर्दाश्त करना भी मुश्किल हो रहा है । नौकरी छोड़ नहीं सकते क्योंकि दूसरी इस माहौल में अब मिलेगी नहीं । आफिस में सिगरेट पीने के बहाने दिन में कई बार और सप्ताहांत में शाम को घर लौटते हुए शराब से ग़म ग़लत कर लेते थे , अब घर वह सब भी मुश्किल है । यही कारण है कि मुल्क में कारपोरेट कल्चर में रमी लगभग पाँच करोड़ की आबादी इन दिनो बेहद तनाव में है । एक तिहाई नौकरियाँ पहले ही छूट चुकी हैं अतः जो जहाँ है उसी जगह को सम्भालने पर लगा है । कुछ तो कारपोरेट कल्चर का असर और कुछ अब तनाव के चलते अधिकांश व्यसनों के शिकार हो गए हैं और जो नशा नहीं कर रहे उनका भी मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ रहा है । कोई अवसाद का शिकार हो गया है तो कोई तनाव का । दुनिया भर में कारपोरेट वर्ल्ड अपने कर्मचारियों के वेलनेस, मेडिकल, इंश्योरेंस और काम के सुगम माहौल पर मुनाफ़े का दस फ़ीसदी ख़र्च करता है मगर भारत में एसा कोई रिवाज ही नहीं है । श्रम क़ानून इन कर्मचारियों को अपने दायरे में रखते नहीं और कम्पनियाँ भला कर्मचारियों का हित क्यों सोचें जब एक कर्मी के हटते ही पीछे लाइन में दस खड़े हों । मल्टीनेशनल कम्पनियाँ भी भारत आकर इस रंग में रंग गईं हैं । कोरोना संकट से पूर्व फिर भी कम्पनियाँ विन-विन के फ़ार्मूले पर थोड़ा बहुत चलती थीं मगर अब बढ़ी बेरोज़गारी से सस्ते कर्मचारियों की बहुतायत में उपलब्धता ने रही सही कसर भी पूरी कर दी । टाई मार्का देश की पढ़ी लिखी इस युवा पीढ़ी की यह दुःख भरी दास्ताँ कई बार तो प्रवासी श्रमिकों से भी अधिक त्रासद लगती है ।

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