गुलगुलों से परहेज़

रवि अरोड़ा
अन्य दिनो की तरह कल शाम भी मैं फल लेने को गोविंद पुरम के निकट खड़ी ठेलियों पर रुक गया । यहाँ आजकल फल आदि वही लोग बेच रहे होते हैं जिनका लॉकडाउन के बाद से पुराना रोज़गार चौपट है अथवा छिन चुका है । हापुड़ रोड के इस इलाक़े में पहले इक्का दुक्का ही फल विक्रेता मिलते थे मगर अब इनकी संख्या पचास के भी पार पहुँच चुकी है । ख़ैर , मैं पहचान के एक ठेली वाले से अभी फल तुलवा ही रहा था कि तभी वहाँ पुलिस की एक जिप्सी आकर रुकी । पुलिस का वहाँ पहुँचना ही था कि ठेली वालों में भगदड़ मच गई । जिसका जिस ओर मुँह था वो उस ओर ही अपनी ठेली लेकर भागा । हड़बड़ाहट में कई ठेलियाँ आपस में टकरा गईं और उनमे रखे सेब, अनार, पपीते और अमरूद आदि सड़क पर बिखर गये । एक डरपोक से बालक की तो ठेली ही पलट गई और उस पर रखे सारे सेब सड़क पर आ गिरे । पुलिस का एसा ख़ौफ़ फल विक्रेताओं पर था कि कोई भी सड़क पर बिखरे अपने फलों को उठाने का साहस नहीं कर रहा था और सभी बचे ख़ुचे माल को लेकर ही सरपट भागे जा रहे थे । महँगाई के ज़माने में सड़क पर फल बिखरे हों तो भला बंदरबाँट को लोगबाग़ क्यों न रुकेंगे ? सो अनेक पैदल अथवा साइकिल सवार फल बटोरने लग गये । कई दुपहिया चालक भी अपना वाहन सड़क पर बेतरतीब खड़ा कर इस लूट में शामिल हो गए । सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि इससे सड़क पर ट्रेफ़िक जाम हो गया और सड़क पर निर्बाध आवागमन की गरज से मौक़े से ठेलियों को हटवाने आई पुलिस की इस आमद से ही जाम लग गया ।
ठेली वालों के प्रति मेरी हमदर्दी हो सकता है कि बेवक़ूफ़ाना हो मगर पता नहीं क्यों यह पूरा घटनाक्रम मुझ पर बेहद नागवार गुज़रा । हालाँकि मैं मानता हूँ कि बेहतर नगरीय सुविधाओं के लिये किसी भी शहर में आवागमन की निर्बाध सुविधा होना शुरुआती शर्तों में से एक है । सामान्य दिनो में तो मैं स्वयं इसका हामी हूँ मगर आजकल जब चहुँओर रोटी के लाले हैं तब भी हम सामान्य दिनो जैसा स्वाँग करें तो यह कहाँ तक जायज़ है ? ग्लोबल हंगर इंडेक्स के हिसाब से भूख के मामले में हम 107 देशों में 94वें स्थान तक पहुँच गये हैं । यहाँ तक कि पाकिस्तान, बांग्ला देश और नेपाल जैसे पड़ौसी देशों की स्थिति भी हमसे बेहतर हैं । जानकर बता रहे हैं कि स्थितियाँ उससे अधिक ख़राब हैं , जितना अनुमान लगाया जा रहा है । ऐसे माहौल में यदि कोई सड़क किनारे खड़ा होकर अपना और अपने परिवार का पेट पाल रहा है तो क्या ग़लत है ? मुल्क में लाखों-करोड़ों लोग आजकल इसी ठेली-पटरी के सहारे हैं । मगर सोशल मीडिया पर रोज़ इन पर पुलिसिया क़हर टूटता दिखाई देता है । ये वो लोग हैं जिन्हें कोई बैंक लोन नहीं देता । किसी सरकारी रियायत अथवा योजना में भी इनकी कोई हिस्सेदारी नहीं होती । सरकारी सुविधा के नाम पर इन्हें बस इतना चाहिये कि कोई मुशटंडा इनसे हफ़्ता न वसूले अथवा कोई पुलिस वाला इनकी ठेली न पलटे । मगर हम इन्हें यही सुविधा देने को तैयार नहीं हैं ।
अनलॉक की प्रक्रिया में पूरे मुल्क के बाज़ार खुल गये हैं मगर पैठ और पटरी बाज़ार ही हम नहीं खोल रहे । यूँ ही कहीं भी बेतरतीब खड़े होकर ये लोग कुछ बेंचें तो गोविंद पुरम जैसा पुलिसिया क़हर इन पर टूट पड़ता है । बेशक ये शहर हमने अपने लिए बनाए हैं और इसे साफ़ देखने की हमारी ख़्वाहिश क़तई ग़ैर वाजिब नहीं है । विकसित देशों जैसी नगरीय सुविधाएँ पाने का हमें भी हक़ है मगर जब हम अपने घर के सारे काम ख़ुद नहीं करना चाहते और हमें घरेलू नौकर चाहिये । घर-दुकान की बिजली, पानी अथवा लकड़ी आदि के काम हमें आते नहीं । बड़े-बड़े और महँगे शॉपिंग मॉल में ख़रीदारी की हमारी हैसियत नहीं है और सारी जगह घूम कर कोई ठेली-पटरी वाला ही हम ढूंढ़ते हैं तो मुआफ़ कीजिएगा फिर हमें कोई हक़ नहीं कि हम इनके रोज़गार को तिरछी नज़र से देखें । गुड़ खाकर गुलगुलों से परहेज़ का ढकोसला अच्छा नहीं होता जनाब ।

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