उल्लू गिरी

रवि अरोड़ा
हर साल की तरह इस बार भी कॉर्बेट नेशनल पार्क के कर्मचारियों को दिवाली पर छुट्टी नहीं मिली । जिनकी छुट्टियां पहले से ही स्वीकृत थीं , उन्हे भी रद्द कर दिया गया । कारण वही सदियों पुराना था यानी उल्लू । जी हां हर बार की तरह इस बार भी दिवाली पर उल्लुओं को शिकारियों से बचाने के लिए वन्य विभाग कर्मियों को भरपूर मशक्कत करनी पड़ी । बेचारे करें भी तो क्या, दिवाली पर उल्लुओं की शामत जो आ जाती है । इस दौरान बलि के लिए बाजार में उल्लुओं की मांग इस कदर बढ़ जाती है कि आपूर्ति ही नहीं हो पाती । कुछ लोग महीनों पहले उल्लू खरीद लेते हैं और मांस व मदिरा से उसको मोटा करते हैं तथा दिवाली की रात लक्ष्मी की पूजा कर उसी उल्लू की बलि ले लेते हैं । उन्हे लगता है कि पूजा के बाद लक्ष्मी जी कहीं वापिस न लौट जाएं इसलिए उनके वाहन उल्लू को ही रास्ते से हटाना जरूरी है । अब इन्हीं धार्मिक उल्लुओं की उल्लू गिरी के चलते इस बार भी दिवाली पर निरीह प्राणी उल्लू की कीमत एक लाख तक पहुंच गई ।

अब आप कहेंगे कि उल्लू तो संरक्षित वन्य पक्षी है और उसका व्यापार व हत्या कैसे हो सकती है ? जी बिलकुल ठीक कहा आपने । देश में उल्लू को लुप्तप्राय पक्षियों की श्रेणी में माना गया है और कानूनन इसकी खरीद फरोख्त पर तीन साल की सजा का प्रावधान है मगर इससे क्या होता है ? धार्मिक आडंबर के आगे नियम कानून की हमारे मुल्क में भला क्या बिसात है ? नियम कानून तो न जाने क्या क्या कहते हैं , सब कुछ मान लेते हैं क्या हम ? अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दिवाली पर पटाखे न चलाएं , हमने नहीं चलाए क्या ? सुप्रीम कोर्ट का क्या है , वह तो हर साल यही कहता है , हम सुनते हैं क्या ? खबरें बता रही हैं कि पटाखों से इस बात भी इतना इतना प्रदूषण हुआ और इतने इतने लोग सांस की तकलीफ के चलते अस्पताल में भर्ती हुए । कुछ फर्क पड़ता है क्या इससे ? आप इस पर बात तो करके देखिए , लोगबाग चढ़ दौड़ेंगे आप पर । कहेंगे कि यह हमारा धार्मिक मामला है , तुम होते कौन हो इस पर बात करने वाले । ज्यादा चूं चपड़ करके देखिए , सीधी चुनौती मिलेगी कि बकरीद पर तुम क्यों नहीं बोलते ? फलां फलां मौके पर तुम्हारी आवाज क्यों नहीं निकली ? वगैरह वगैरह ।

कई दफा मन करता है कि जंगली उल्लुओं और शहरी उल्लुओं में तुलनात्मक अध्ययन करूं । उनके बीच की कई समानताएं मुझे इसके लिए उकसाती हैं । दिवाली का त्यौहार इसके लिए तो बिलकुल मुफीद लगता है । दिवाली यानी लक्ष्मी , लक्ष्मी यानी धन , धन यानि दिखावा, दिखावा यानि मूर्खता, मूर्खता यानि उल्लू और उल्लू यानि दिवाली । पता नहीं यह क्रम आपको जंचा या नहीं मगर हो तो यही रहा है । किसी गरीब को अपना पेट काट कर पटाखे फोड़ते तो किसी ने नहीं देखा होगा । बेशक दिवाली उसने भी धूमधाम से ही मनाई होगी । पटाखे तो धनपशुओं ने ही फोड़े और अब धर्म का पटाखों से कनेक्शन भी उनकी ही ईजाद है । कमाल है कि इन शहरी उल्लुओं ने भी जंगली उल्लुओं की तरह शराब और मांस का जम कर भक्षण दिवाली पर किया होगा मगर फिर भी उनकी बलि नहीं हुई । बलि तो जंगली उल्लुओं की हुई या उन शहर वासियों की जो अब जहरीली हवा में सांस ले रहे हैं ।

हो सकता है कि आप कहें दिवाली का माहौल है जी । थोड़े बहुत पटाखे चल गए तो क्या फर्क पड़ता है ? मैं आपकी बात से सहमत हो सकता हूं मगर फिर आपको जंगली उल्लुओं की बलि पर दुःख प्रकट करने का कोई हक नहीं होगा । आप दोनो तरह के उल्लुओं के एक साथ समर्थक नहीं हो सकते । हां यदि फिर भी आपकी यही जिद है तो मै आपकी इस उल्लू गिरी का समर्थक नहीं हूं ।

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