इस्लामोफोबिया की हवायें

रवि अरोड़ा

सन 2006 की बात है । मैं हापुड़ रोड स्थित
अपने कार्यालय पर बैठा था । तभी शहर के एक जाने माने मुस्लिम नेता मुझसे मिलने आये । बातों ही बातों में उन्होंने बताया कि कल जुम्मे की नमाज़ के बाद वे एक प्रदर्शन आयोजित करने जा रहे हैं। कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि डेनमार्क के एक अख़बार में हमारे पैग़म्बर मोहम्मद साहब पर एक कार्टून छपा है और उसी के ख़िलाफ़ यह प्रदर्शन करना है । चूँकि वह नेता एक छोटी सी पार्टी के नगर स्तर का पदाधिकारी थे अतः मैंने उसकी बात को उनके छपास रोग से जोड़ कर ही देखा । इससे पहले भी अपनी पार्टी के एजेंडे को लेकर वे आये दिन कलेक्ट्रेट पर प्रदर्शन करते रहते थे और कभी भी पचास आदमी से अधिक नहीं जुटा पाये थे अतः प्रदर्शन सम्बंधी उनकी बात को गम्भीरता से लेने का कोई औचित्य भी नहीं था । ख़ैर, अगले दिन शाम को मेरे कार्यालय के सामने से जुलूस निकला । नेता जी हाथ में धार्मिक उन्माद सम्बंधी एक तख़्ती लिये सबसे आगे आगे चल रहे थे । जुलूस में काफ़ी भीड़ दिखी तो मैं समझ गया कि इस बार नेताजी ने बहुत मेहनत की है । मगर यह क्या ? जुलूस तो जैसे ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था । जुलूस की अगला जत्था कलेक्ट्रेट तक भी पहुँच गया मगर उसका पिछला छोर अभी मुस्लिम बहुल बस्ती कैला भट्टे से निकला भी नहीं था ।

लगभग पाँच किलोमीटर के इस मार्ग पर जहाँ देखो गोल टोपी वाले हाथ में बैनर और स्लोगनवाली तख़्तियाँ लिये कलेक्ट्रेट की ओर बढ़ते दिखाई दिये । कम से कम पचास हज़ार लोगों की यह भीड़ एक साथ देख कर रूह कांप गई । बेशक पूरी भीड़ शांति पूर्ण तरीक़े से आगे बढ़ रही थी मगर डर लग रहा था कि माहौल ख़राब करने वाले कहीं भूसे के ढेर में चिंगारी न छोड़ दें । यूँ भी इस कार्टून विवाद को लेकर दुनिया के अनेक देशों में दंगे-फ़साद हो ही चुके थे और अपने मुल्क के भी कई हिस्सों से झड़पों की ख़बरें आ रही थीं । अतः मेरा डरना ग़ैरवाजिब भी नहीं था । ख़ैर यह प्रदर्शन शांतिपूर्ण निपट गया और देर रात मैंने उस नेता को फ़ोन करके पूछा कि इतने बड़े प्रदर्शन की तैयारी वे कब से कर रहे थे तो उनका जवाब सुन कर मैं भीतर तक हिल गया । उन्होंने बताया कि प्रदर्शन की कोई ख़ास तैयारी उन्होंने नहीं की थी । जुम्मे की नमाज़ के बाद लोगों के बीच एक ज़ोरदार तक़रीर करके उन्हें नबी से उनकी मोहब्बत का वास्ता दिया और उनके हाथ में बैनर पकड़ा दिये । बाक़ी काम अपने आप हो गया । नेता की बात सुनने के बाद मैं भली भाँति समझ गया कि दीन के नाम पर मुस्लिम क़ौम से कभी भी कुछ कराया जा सकता है । और बात यदि पैग़म्बर मोहम्मद की हो तो इसके चाहने वालों को जान देने अथवा लेने के लिये भी उकसाया जा सकता है ।

फ़्रान्स में शिक्षक की हत्या और चर्च में की गई क़त्लो-गारत की ख़बरों के बीच मुझे अपने शहर का उक्त क़िस्सा बहुत याद आया । बेशक फ़्रान्स में अभिव्यक्ति की आज़ादी का दुरुपयोग हुआ मगर उसके आरोपियों का क़त्ल तो मुर्ग़ी चोर को फाँसी जैसा ही है । यही सब वे हरकतें है जिनकी वजह से भारत समेत पूरी दुनिया में इस्लामोफोबिया है । यक़ीनन फ़्रान्स के राष्ट्रपति को भी इस संवेदनशील मुद्दे पर कुछ गम्भीरता दिखानी चाहिए थी मगर देश दुनिया में उनके ख़िलाफ़ हुए हिंसक प्रदर्शनों से अंतत मुस्लिम क़ौम का ही तो नुक़सान हुआ है ।शिक्षक की हत्या को सही ठहरा कर मुस्लिम कट्टरपंथियों ने एक बार फिर पूरी दुनिया के दिलो में छुपी अलगाव की बातों को सामने ला दिया है । इसे लेकर देश दुनिया के मोहब्बत पसंद लोगों को और ख़ास कर मुस्लिमों को आगे आना चाहिये । यदि एसा नहीं हुआ तो इसका ख़ामियाज़ा ग़रीब और पिछड़े मुस्लिम बहुल देशों को भुगतना पड़ेगा । वे मुस्लिम भी इसकी जद में आएँगे जो कट्टर नहीं हैं। याद कीजिये कि नाईन-इलेवन की घटना के बाद केवल खान उपनाम की वजह से ही अमेरिका में स्टार शाहरूख खान को पूरी तरह नंगे होकर अपनी तलाशी देनी पड़ी थी ।

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