ख़लक़त में खुदा
रवि अरोड़ा
भारतीय जन मानस को मैं समझ नहीं पाता । देश के मतदाताओं को तो क़तई नहीं । अब देखिये न 2019 के चुनाव परिणामों को लेकर मेरा अनुमान बिलकुल ग़लत निक़ला । मैं ही क्यों , मुझे जैसे करोड़ों अन्य लोग भी होंगे जो भारतीय जनमानस की सोच और समझ को लेकर हर बार हैरान होते होंगे । वैसे देखा जाए तो भारतीय मतदाताओं की यह विशेषता ही तो है कि अपनी पसंद को लेकर वह आख़िरी समय तक ख़ामोश ही रहता है और उसका वोट पाने वाला भी नहीं जान पाता कि जनता ने उसकी ही झोली भरी है । इस नज़र से कहें तो जनता की लाठी बेआवाज़ है और अब तो यह भी कहा जा सकता है कि उसका आशीर्वाद भी ख़ामोशी का चोला ओढ़ कर आता है ।चुनाव परिणामों को लेकर तमाम तरह की समीक्षाएँ हो रही हैं । राजनीति के विशेषज्ञ बहुत दूर दूर की कौड़ियाँ ढूँढ कर ला रहे हैं । बेशक मैं राजनीति नहीं जानता मगर अपने तई कुछ जोड़ घटाव तो मैंने भी किया है । ज़रूरी नहीं कि आप इससे सहमत हों मगर फिर भी इसे आपसे साँझा करने से ख़ुद को मैं रोक नहीं पा रहा हूँ । कहिये तो क्रमवार बयान ही कर दूँ ।
मेरी नज़र में मोदी जी की प्रचंड जीत का सबसे महत्वपूर्ण कारण यह रहा कि मतदाताओं को अच्छी तरह समझ आ गया था अथवा समझा दिया गया कि उसे सरकार नहीं प्रधानमंत्री चुनना है और ऑप्शन में उसके पास नरेंद्र मोदी हैं अथवा बेहद बचक़ाने राहुल गांधी या फिर दो दर्जन दलों का कोई अज्ञात नेता । ज़ाहिर है इस ऑप्शन में ब्रांड मोदी सब पर भारी पड़ना ही था और एसा हुआ भी ।
चुनाव परिणामों को पुलवामा हमले और बदले में भारत द्वारा बालकोट पर किये गए एयर स्ट्राइक ने ज़बरदस्त तरीक़े से प्रभावित किया । हम भारतीयों की यह ख़ास विशेषता है कि हम बेशक टैक्स की चोरी करें । सुबह शाम क़ानूनों को धता बतायें और जम कर नियमों का उल्लंघन भी करें मगर फिर भी हम अपने अमूर्त देश को प्रेम करते हैं । हालाँकि हमारा देश प्रेम तीज त्योहार ही जागता है मगर भाजपा के रणनीतिकारों की यह बहुत बड़ी सफलता है कि उन्होंने स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के अतिरिक्त मतदान के समय पर भी हमारे सोए हुए इस देश प्रेम को जगा दिया । अब जो बोएगा वही तो काटेगा ।
बेशक हमारी आदर्श चुनाव संहिता कुछ भी कहे मगर हमारे नेता धर्म के नाम पर मतदाताओं का ध्रुविकरण करना भली भाँति जानते हैं । इन आम चुनावों में यह काम कुछ ज़्यादा ही हुआ । बेशक आज कोई इसका दोष केवल भाजपा को दे मगर यह भी सच है कि केंद्र में कांग्रेस और विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय दलों की सरकारों ने मुस्लिम तुष्टिकरण की सारी सीमायें जब पार कर दीं तो उसकी प्रतिक्रिया में हिंदुओं को एक छतरी के नीचे लाने वालों को भी अपनी करने का मौक़ा मिल गया । इस बार ध्रुविकरण इतना ज़बरदस्त हुआ कि हिंदुओं की पार्टी कही जाने वाली भाजपा तीन सौ पार कर गई और उधर मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भी केवल अल्पसंख्यक ही चुने गए । चाहे वे किसी भी दल से हों ।
हमारा देश ग़रीब है अतः पैसे की क़द्र हमें मालूम है । यही कारण है कि सरकारों में हुआ भ्रष्टाचार देशवासियों को बिलकुल बर्दाश्त नहीं होता । राहुल गांधी ने जनता की इसी नब्ज़ को पकड़ने के प्रयास में चौक़ीदार चोर है का नारा चलाया मगर उनका यह दाँव उल्टा पड़ गया । जनता के मन में मोदी के प्रति यह विश्वास क़ायम हो चुका था कि यह आदमी न खाता है और न ही खाने देता है । बेशक पिछले पाँच सालों में निचले स्तर पर भ्रष्टाचार रत्ती भर भी कम नहीं हुआ मगर ऊपरी स्तर पर कोई बड़ा घोटाला न होना भी मोदी की जीत का कारण बना । हालाँकि राफ़ेल की बात चली मगर वह भी फुस्स पटाखा साबित हुई ।
यह पहला एसा चुनाव था जिसमें मीडिया बुरी तरह से एक पक्षीय नज़र आया । अब एसा होता भी क्यों नहीं , अधिकांश मीडिया घरानों में मुकेश अंबानी का पैसा जो लगा है और बचे खुचे घरानों के मालिक भाजपा अथवा अन्य दलों के सदस्य हैं । सोशल मीडिया राजनीतिक दलों की आईटी फ़ैक्टरी चलाती हैं और अधिकांश पत्रकार भी भोपू अथवा किसी न किसी दल के प्रवक्ता बन दहाड़ते नज़र आए । अगर विश्वसनीयता के मामले में आज हमारे मीडिया का नम्बर दुनिया में 140वाँ है तो उसकी कोई तो वजह होगी ।
इन चुनावों में राहत की सबसे बड़ी बात यह हुई कि जाति की राजनीति बेहद कमज़ोर होकर सामने आई । इसी से कुछ उम्मीद बनती नज़र आती है कि शायद भविष्य में कभी एसा समय भी आये तब धर्म भी हाशिये पर चला जाये और राजनीति पूर्ण रूप से मुद्दों के आधार पर हो । यह चुनाव इस नज़र से भी कुछ ख़ास हैं कि वामपंथ लगभग ख़ारिज ही हो गया । जनता का संदेश साफ़ है कि केवल बातों से उसे बहुत समय तक बहलाया नहीं जा सकता । परिणाम भी देने होते हैं । यह भी साबित हुआ कि हिंदी बेल्ट और दक्षिण की राजनीति एक दम उलट है । हालाँकि एसा पहले भी होता आया है मगर पूरे देश में समानांतर दो विचार चलने के भी कई संदेश निकलते दिख रहे हैं । फिर साबित हुआ कि जनता कि उम्मीदें बहुत बड़ी हैं और उसे तुरंत परिणाम चाहिये । मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनाने के तुरंत बाद ही उन्हें ठेंगा दिखा कर जनता ने यही संदेश दिया है ।
आज बेशक मोदी जी राष्ट्रवाद की नाँव पर बैठ कर चुनावी वैतरणी पार कर चुके हैं और अब काला धन, किसान, रोज़गार, मंदिर और धारा 370 जैसे सवालों की बात कोई नहीं कर रहा मगर सवाल लखटका है कि क्या लोगों के दिमाग़ से राष्ट्रवाद का मियादी बुखार जल्दी उतर नहीं जाएगा और क्या नई सरकार को पुनः उन्ही सवालों से जूझना नहीं पड़ेगा जिसने उसे पिछले पाँच साल चैन से साँस नहीं लेने दिया ? मुझे लगता है कि मोदी जी की नई सरकार के लिए आने वाले पाँच सालों में यह याद रखना बेहद ज़रूरी है कि लोकतंत्र में खलकत ही खुदा है और जनता की तात्कालिक नहीं स्थाई अपेक्षाएँ और उसके सुख-दुःख ही असली कसौटी हैं । इस नज़रिए से देश और ख़ुद मोदी जी के लिए अब चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ सामने हैं ।