होइए मुल्क पर निसार
होइए मुल्क पर निसार
रवि अरोड़ा
पिछले कई दिनों से सिर धुनने जैसे हालात नमूदार हो रहे हैं। मरहूम फैज़ साहब जैसा बात कहने का हुनर होता तो तंज करता- निसार मैं तेरी गलियों के ए वतन । मगर इतनी समझ कहां से लाएं कि चहुंओर बिखरी पड़ी विसंगतियों पर असरदार ऐसा कुछ कह सकें मगर फिर भी बात करने का मन तो करता ही है। आज ही अखबार में खबर पढ़ी कि अयोध्या के राम मंदिर परिसर के सभी 18 मन्दिरों के बुर्ज पर सोना मढ़ा जाएगा । जी हां यह खबर अपने उसी देश की है जहां की दो तिहाई आबादी के पास रोटी का भी जुगाड़ नहीं है और 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन सरकार को देना पड़ रहा है। आज की ही खबर है कि बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ अनेक स्थानों पर धरने प्रदर्शन हुए । बेशक अत्याचार कहीं भी हो उसका विरोध होना ही चाहिए मगर पता नहीं क्यों विदेश की भूमि पर हो रही घटनाओं पर आक्रोशित लोग वर्षों से अपने ही मुल्क के हिस्से मणिपुर में हो रहे लोमहर्षक अत्याचारों पर चुप हैं ? बढ़ती आबादी के चलते देश के संसाधन कम पड़ते जा रहे हैं। लोगों के पास रोटी है और न ही रोजगार मगर देश की सबसे बड़ी और ताकतवर गैरराजनीतिक संस्था आरएसएस के प्रमुख लोगों का आह्वान कर रहे हैं कि अभी और अधिक बच्चे पैदा करो । हर घर में हर गली में मंदिर भरे पड़े हैं मगर फिर भी मस्जिदों और मजारों को खोद खोद कर और अधिक मंदिर ढूंढे जा रहे हैं। छोटे छोटे मामलों में लोग बाग जेलों में सड़ रहे हैं और हजारों करोड़ की हेराफेरी करने वालों की उंगलियों पर सरकारें चल रही हैं। अब आप ही बताइए फैज साहब की तरह मुल्क पर निसार न हुआ जाए तो क्या किया जाए ?
द्वंद प्रकृति का नियम है। देश दुनिया में भी अन्तर्द्वंद निहित है। समाज कोई भी हो अंतर्विरोध भी स्वाभाविक तौर पर उभर ही आते हैं। एक हद तक मुल्कों में विसंगतियां भी होती ही हैं मगर इस हद तक विसंगतियां तो शायद दुनिया भर में कहीं देखने को नहीं मिलेंगी , जितनी हमारा देश झेल रहा है। कमाल की बात यह है कि अधिकांश विसंगतियों के जनक कथित बड़े लोग ही हैं। जहां पहले से ही हम अजब गजब विसंगतियों में फंसे हों वहां कथित बड़े लोगों की उलट बाँसियाँ और अधिक हैरान करने लगी हैं। दुनिया भर में कौन नहीं जानता हमारी पुरानी विसंगतियों को ? किससे छुपा है कि एक ओर तो हम साल में कई कई बार बेटियों की पूजा का अखिल भारतीय पाखंड रचते हैं, वहीं बलात्कार के मामले में दुनिया की राजधानी भी हमारा देश ही है। बैंकों के दस पांच हजार न चुका पाने पर किसान आत्महत्या कर लेते हैं मगर बड़े सेठों के हजारों करोड़ चुटकियों में यूं माफ हो जाते हैं जैसे कोई बात ही न हो । नेता विरोधी पार्टी में है तो चोर डकैत और न जाने क्या क्या है मगर सत्तारूढ़ पार्टी में आ जाए तो जैसे गंगाजल से ही धुल हो जाता है । सिर से पांव तक ज़हालत से करोड़ों लोग सराबोर हैं मगर दावा किया जा रहा है विश्व गुरु बनने का । हर तिमाही जीडीपी गिर रही है मगर बात हो रही है पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था की । गजब तो यह है कि जिन धर्मों के मानने वाले मात्र हजारों की तादाद वाले में हैं वे लोग तो मस्त हैं मगर मुल्क में खतरा उन पर बताया जा रहा है जिनकी आबादी सौ करोड़ के पार है । बांग्लादेश के मुद्दे पर छाती पीट रहे लोगों को कोई नहीं पूछ रहा कि आप अपने देश में अल्पसंख्यकों के साथ क्या कर रहे हो ? किसी ने मोहन भागवत से नहीं पूछा कि चलिए आबादी डेढ़ सौ करोड़ से बढ़ा कर ढाई सौ करोड़ कर भी लेते हैं मगर इतनी बड़ी आबादी को दो वक्त की रोटी मुहैया कराने के लिए उनके पास क्या योजना है ? केवल 18 मन्दिरों को ही क्यों देश के सभी लाखों करोड़ों मंदिरों को सोने से मढ़ दो कौन रोक रहा है मगर कोई यह तो बताए कि मंदिर में रोटी भी मिलेगी क्या ? चलिए छोड़िए । कहने सुनने को बहुत कुछ है मगर यहां सुन कौन रहा है ? यह वक्त तो मुल्क पर निसार होने का है और खूब होइए निसार ।