हिमायत क़ुदरत की
रवि अरोड़ा
अपने बचपन में अक्सर मैं अपनी माँ के साथ गुरुद्वारे जाया करता था । गुरु ग्रंथ साहेब के समक्ष माथा टेकने का शऊर मुझे नहीं था । कैसे झुकना है और कैसे क़ालीन से ढकी ज़मीन पर नाक रगड़नी है, यह माँ सिखाती थीं । अरदास के समय कब खड़ा होना है और कब बैठना है , माँ बार-बार बताती थीं । दरबार साहेब के सामने अदब से झुक कर माँ कुछ बुदबुदाती थीं । उनकी देखा देखी मैं भी झूठ मूठ को होंठ हिलाने लगता था । वापिस लौटते हुए माँ पूछतीं थीं कि बाबा जी से क्या माँगा तो मैं इस सवाल से हैरत में पड़ जाता था । मेरी समझ में नहीं आता था कि सब कुछ तो माता-पिता दे रहे हैं फिर फिर किसी और से क्यों माँगू ? इस पर माँ कहतीं कि बाबा जी हमें देते हैं तब ही तो हम तुम्हें देते हैं । वो कहतीं कि इतनी दूर आता है तो कुछ माँगा भी कर । चोट लगने पर उसके जल्दी ठीक होने , बुखार होने पर उसके जल्दी उतरने और परीक्षा में अच्छे नंबरों से पास होने के लिए माँगना माँ ही सिखाती थी । हालाँकि मुझे लगता था कि बुखार कभी न कभी तो उतरेगा , चोट कभी तो ठीक होगी ही और मन लगा कर पढ़ूँगा तो पास भी हो जाऊँगा , फिर ये सब क्यों ? मगर पिटाई के डर से कभी कह नहीं पाता था । दरअसल मैं तो कढ़ाह प्रसाद के लालच में उनके साथ गुरुद्वारे जाता था । यही वजह थी कि एक हाथ में प्रसाद मिलते ही झट दूसरा हाथ पाठी के आगे बढ़ा देता था । माँ को पता लगता तो वो गुस्सा होतीं और कहती कि यह प्रसाद की बेअदबी है । ग़लती से नीचे गिर गया प्रसाद भी वो माथे से लगा कर मुँह में डाल लेती मगर मुझे यह सब करते हुए वहम आता था । नीचे मिट्टी में गिरा प्रसाद खाया कैसे जा सकता है मगर माँ कहती कि प्रसाद कभी दूषित नहीं होता ।
पिता जी एक संत को बहुत मानने थे । बचपन की ही बात है एक बार इनके प्रवचन में वे मुझे भी अपने साथ ले गए । अब बच्चे को प्रवचन से क्या मतलब ? सो घर आ कर संत की नक़ल करने लगा । पिता जी ने देखा तो थप्पड़ ईनाम में मिला और सीख अलग से दी गई कि महात्माओं की नक़ल नहीं करते । बचपन में ही एक भजन की पैरोडी बनाते समय भी मार खा चुका हूँ । थोड़ा बड़ा हुआ तो घर का ज़िम्मेदार सदस्य मान कर बड़ी बहन की शादी का कार्ड छपवाने का काम मुझे सौंपा गया । कार्ड के ऊपर गुरु नानक देव का जो श्लोक लिखवाना था , वह पिता जी ने ख़ुद हाथ से लिख कर दिया था- लख ख़ुशियाँ पातशाइयाँ जे सतगुर नदर करे । मैंने सोचा कि सही शब्द तो ‘ नज़र करे ‘ है नदर करे शब्द का तो कोई अर्थ ही नहीं है । मैंने मान लिया कि या तो नानक से चूक हुई होगी अथवा पिता जी से । सो कार्ड में ‘ नज़र करे ‘ छपवा दिया । इस पर घर में कई दिन कोहराम रहा और एक एक कार्ड पर अपने हाथ से मुझे ‘ नज़र ‘ का ‘ नदर ‘ करना पड़ा सो अलग। अन्य बड़े बूढ़ों ने भी ख़ूब लालन मलानत की कि संतों की बानी से छेड़छाड़ की हिमाक़त मैंने की तो आख़िर कैसे ? बचपन की तमाम ग़लतियाँ अब मैं नहीं दोहराता । ज़ाहिर है कि मैं अब बड़ा हो गया हूँ । हर कोई अब मुझसे समझदारी की उम्मीद करता है । घर के बड़े बूढ़ों की मुझसे अपेक्षा है कि वह तमाम बातें जो माँ-बाप ने मुझे सिखाईं उन्हें घुट्टी की तरह मैं अपने बच्चों को भी रटवाऊँ।
ईद के मौक़े पर आज बहुत से विडियो सोशल मीडिया पर मुझे लोगों ने भेजें । एक विडियो तो बड़ा ही मार्मिक है जिनमे अलग अलग घरों में मुस्लिम बच्चे रोते हुए अपने उस प्रिय जानवर से लिपट रहे हैं जिनकी क़ुर्बानी उनके पिता देना चाहते हैं । कोई बच्चा अपने पिता के हाथ से छुरा छीन रहा है तो कोई बच्चा अपने प्रिय जानवर को पिता के चंगुल से छुड़ा कर कहीं दूर ले जाने का प्रयास कर रहा है । सभी बच्चे अपने बकरे , मुर्ग़े अथवा मेमने को बचाने में लगे हैं । मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि विडियो में दिख रहे ये सभी बच्चे जब बड़े होंगे तो अपने बाप की जगह ले लेंगे और तब उनके बच्चे भी एसे रो रहे होंगे वे अपने बच्चों के भोले पन पर हँस रहे होंगे । मैं हिसाब लगाने का प्रयास कर रहा हूँ कि क़ुदरत किसके साथ है ? किसकी हिमायती है यह कायनात ? बच्चों की या बड़ों की ? यदि वह बड़ों के साथ है तो यक़ीनन बच्चों को बड़ों जैसा बनना ही पड़ेगा मगर यदि क़ुदरत बच्चों के साथ हुई तो क्या हम बड़ों को बच्चों जैसा बनना पड़ेगा ? मासूम , भोले और मोहब्बत से लबरेज़ ?