हमारे कालिदास

रवि अरोड़ा
पहले मुझे शक होता था मगर अब यक़ीन से कह सकता हूँ कि सत्ता अब कालिदासों के हाथों में है । ये कालीदास भी पुराने जैसे हैं और जिस डाल पर बैठते हैं , उसे ही काटते हैं । कृपया अब आप मुझसे यह मत पूछिएगा कि ये कालीदास हैं तो विद्दोत्मा कौन है ? यह भी उम्मीद मत पालियेगा कि ये कालीदास भी एक दिन महान रचनाकार हो जाएँगे क्योंकि अब इसकी कोई आशा शेष नहीं है । विगत सोमवार को संसद में सरकार किसानों के हित के नाम पर जो तीन बिल लाई है , वह सरासर उसी डाल को काटना है जिस पर वे लोग बैठे हैं । आप ख़ुद विचार कीजिए कि अपने डकार लेने को भी जो सरकार महिमा मंडित करती है और उसका ज़ोर शोर से प्रचार करती है , इस बार बड़ी ख़ामोशी से यह काम क्यों निपटा रही है ? पहले चुपके से अध्यादेश और अब शाइस्तगी से विधेयक लाये गए मगर फिर भी हल्ला मच गया । संसद में तो कोहराम है ही साथ ही पंजाब, हरियाणा, आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना के किसान भी सड़कों पर उतर आये हैं । शिरोमणि अकाली दल के कोटे की मंत्री हरसिमरत कौर इस्तीफ़ा दे चुकी हैं और हरियाणा सरकार के सहारे दुष्यंत चौटाला भी इसी राह पर हैं । देर सवेर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में भी यह आग फैलेगी और सरकार की अँतोगत्वा फ़ज़ीहत ही होनी है।
अब बात करते हैं इस सरकार को कालीदासों की संज्ञा देने की । सबको पता है कि लॉक़डाउन के चलते देश की जीडीपी शून्य से 23. 9 प्रतिशत नीचे चली गई है। कंस्ट्रक्शन, मैनुफ़ैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर तीस से पचास फ़ीसदी तक माइनस में चले गये हैं। इकलौता कृषि क्षेत्र ही एसा था जिसने इस संकट के समय में भी देश की लाज बचाई है और उसकी जीडीपी प्लस में 3.4 फ़ीसदी रही । शायद कालीदासों को यही बात चुभ गई और अब ऐसे इंतज़ाम किये जा रहे हैं जिससे कृषि का भी आने वाले दिनो में बँटाधार हो सके । ले देकर अब तक यही क्षेत्र बचा हुआ था जहाँ कारपोरेट और पूँजीपतियों का कोई दख़ल नहीं था मगर अब यह आख़िरी स्तम्भ भी गिरने जा रहा है । बेशक सरकार कुछ भी सफ़ाई दे मगर किसानो को स्पष्ट दिख रहा है कि इन विधेयकों से उनकी फ़सल के न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था कमज़ोर होगी और केवल बड़े काश्तकार ही मैदान में टिकेंगे । ठेके पर खेती से किसान और कमज़ोर होगा और बिचौलियों को हटाने के नाम पर बड़े कारपोरेट घराने ही फ़सलों को अपनी क़ीमतों पर ख़रीदेंगे ।किसानों की लगभग तमाम फ़सलें आवश्यक वस्तु अधिनियम की धाराओं से बाहर होंगी तो जमाख़ोरी बढ़ने से उपभोक्ता को भी चीज़ें महँगे दाम पर मिलेंगी ।
बेशक अब जीडीपी में खेती-किसानी की भूमिका सत्रह फ़ीसदी पर आकर रुक गई है मगर आज भी देश की आधी श्रम शक्ति को रोज़गार वहीं से मिल रहा है । कृषि पर संकट आया तो यह श्रम शक्ति रोज़गार हेतु गाँवों से शहरों की ओर पलायन करेगी और पूरी व्यवस्था ही चरमरा जाएगी । इसी आधी श्रम शक्ति की ही ताक़त है कि पूरी दुनिया में आई 2008 की मंदी से भारत अछूता रहा था। लॉक़डाउन से शहरों में रोज़गार छिनने पर करोड़ों लोगों का जीवन यापन इसी खेती से हुआ । देश के किसान की जी तोड़ मेहनत का असर कहिए अथवा हरित क्रांति मगर खाद्यान्न के मामले मे आज देश आत्मनिर्भर है । एक सौ तीस करोड़ लोग महीनों के लॉक़डाउन में भी भूखे पेट नहीं सोये इसका श्रेय भी किसानो को ही है मगर अब यही किसान संकट में फँसने जा रहा है । नोटबंदी से वह बच गया । जीएसटी से उसका कुछ नहीं बिगड़ना था और लॉक़डाउन भी वह जैसे तैसे झेल गया मगर अब उसका बचना मुश्किल है । कालीदासों ने इस बार उसकी डाल पर कुल्हाड़ी चलाई है । अब आप ये मत कहिये कि इससे तो कालीदास भी गिरेंगे । अजी गिर गये तो क्या हुआ ? कपड़े झाड़ेंगे और झोला उठा कर चल देंगे ।

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