स्लीपर सेल

रवि अरोड़ा

मेरा एक मित्र है । मुझे बेहद प्रिय भी है । सच कहूँ तो बिलकुल छोटे भाई जैसा है । मगर आजकल वह ख़फ़ा-ख़फ़ा सा रहता है। दरअसल मेरी सोच-समझ उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता से मेल नहीं खाती । वह देश के एक बड़े नेता का भक्त हैं जबकि उस नेता के प्रति मेरा रूख आलोचनात्मक रहता है । मित्र अक्सर नेता के प्रति अपनी भक्ति के प्रदर्शन को उनके गुणगान वाले मेसेज वट्सएप पर भेजता रहता है । आमतौर मैं एसे संदेशों की उपेक्षा कर देता हूँ मगर जब मित्र राग दरबारी ही बजाने लगता है तो मेरे सब्र का बाँध भी टूट जाता है और मेरा मल्हार बाहर आ जाता है तथा मैं नेता जी की बखिया उधेड़ देता हूँ। बस यहीं गड़बड़ हो जाती है । नेता की आलोचना मित्र को निजी तौर पर अपना अपमान लगती है और वह कुतर्क और निजी आक्षेप पर उतर आता है। अब उसकी बातों का जवाब दो तो मुसीबत और यदि चुप हो जाओ तो उपेक्षा करने का आरोप झेलो ।

अजब दौर है । पहले एसा कहाँ होता था ? राजनीतिक प्रतिबद्धता तो पहले भी थी और लोगबाग फक्र से कहते भी थे कि हम कांग्रेसी हैं , कम्युनिस्ट अथवा संघी हैं मगर आपस में उलझते नहीं थे । धर्म और जाति के नाम पर कितने भी हम बँटे हुए थे मगर राजनीतिक बँटवारा कभी नहीं हुआ था । राजनीति दल केवल एक पसंद भर थे और सिर्फ़ चुनाव के दिनों में ही हमारे ख़यालों पर छाते थे मगर अब चीज़ें पूरी तरह बदल गई हैं । सोशल मीडिया ने हमारी राजनीतिक पसंद-नापसंद और प्रतिबद्धता को अजब सी धार दे दी है । ख़ास बात यह है कि इससे मार्फ़त हम अपनों का ही शिकार करते हैं । घर घर इंटरनेट पहुँच गया है । नेट पैक कौड़ियों के दाम हो गए हैं और चाईना मेड स्मार्ट फ़ोन दो दो हज़ार में मिल रहे हैं । ज़ाहिर है कि इससे सोशल मीडिया का दायरा बड़ा हो गया है और इसकी पहुँच अब आधे से अधिक भारतवासियों तक है । अब इसी का फ़ायदा राजनीतिक दल उठा रहे हैं और सोशल मीडिया की आम गुफ़्तगू के बहाने दिन भर हमें अपने प्रचार और विरोधियों के दमन में लगाए रखते हैं । हमें पता ही नहीं चलता और हम किसी ख़ास पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता हो जाते हैं और सारे काम धंधे छोड़ कर दिन भर ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद करते रहते हैं। जिस राजनीतिक संदेश को प्रसारित कर हम ख़ुश होते हैं , उसके बाबत हम सोचते ही नहीं कि इसे मूल रूप से किसने तैयार किया होगा ? किसने इसे हम तक पहुँचाया होगा और हम बैठे बिठाए किसी दल के स्लीपिंग सेल हो जाते हैं । मैं यह नहीं कहता कि राजनीतिक प्रतिबद्धता कोई बुरी शय है मगर यह हो किस क़ीमत पर ? सोशल मीडिया से मिली आम आदमी की आवाज़ का भी मैं विरोधी नहीं मगर इस पर सिर्फ़ राजनीति ही क्यों हो ?

राजनीतिक मैसेज्स से आज घर घर में दरार पड़ रही है । दोस्तियाँ टूट रही हैं । अपने पराए हो रहे हैं । सोशल मीडिया पर दिन भर विरोधी विचार वालों से खुन्नस निकालने के अभियान चलते रहते हैं । वट्सएप , फ़ेसबुक और ट्विटर आदि पर दिन भर सैंकड़ों राजनीतिक संदेश चलते रहते हैं । निजी बातचीत, सूचनाओं के आदान प्रदान और हँसी मज़ाक़ की मात्रा दिन प्रति कम हो रही है और एसे संदेशों की संख्या बढ़ रही है जो किसी दल विशेष की आईटी फ़ैक्टरी से निकले होते हैं । दरअसल सभी राजनीतिक पार्टियाँ अपने आईटी सेल का बजट बढ़ाती जा रही हैं और तीन सौ पैंसठ दिन चुनाव लड़ती रहती हैं । कभी सुना करते थे कि बंगाल के लोग अपने खेल प्रेम को लेकर बँटे रहते हैं । मोहन बाग़ान टीम के समर्थक ईस्ट बाग़ान के समर्थकों के यहाँ शादी भी नहीं करते थे । ईस्ट बाग़ान वालों को भी मोहन बाग़ान वालों से इतनी ही नफ़रत थी । अपनी इसी सनक के कारण बंगाल के लोगों का दुनिया भर में मज़ाक़ उड़ता था । अब देखिए यह सनक पूरे देश को अपने आग़ोश में ले रही है । हो सकता है कि राजनीति के यूँ हो रहे प्रचार-प्रसार का विरोध करना मेरी भी कोई सनक हो मगर इतना तो तय है कि यह सनक मुझ जैसों को किसी विचारधारा का स्लीपर सेल तो कम से कम नहीं ही बनाती । बाक़ी आप ख़ुद समझदार हैं ।

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