स्यापा

रवि अरोड़ा

अच्छा ख़ासा हम लोग हिंदू हिंदू मुस्लिम मुस्लिम खेल रहे थे कि बीच में विघ्न डालने ये भूख से मौतों की ख़बरें आ टपकीं । पहले राजधानी दिल्ली में तीन बच्चियों की भूख से मौत की बात सामने आई और अब मेरे अपने शहर ग़ाज़ियाबाद में भी एक व्यक्ति की भूख से मरने की सूचना अख़बारों में नमूदार हो गई । उधर, झारखंड में भी एक आदिवासी भूख से तड़प कर चल बसा । शुक्र है कि ख़बरों की दुनिया के रणबाँकुर अभी भी पाकिस्तान , भाजपा-कांग्रेस , 2019 के लोकसभा चुनाव , हिंदू-मुस्लिम , गाय और असम में चालीस लाख लोगों की संदिग्ध नागरिकता को लेकर व्यस्त हैं और यह इनकी ही क़ाबलियत है कि देश में भूख से मौतों की ख़बर एक बार फिर फुस्स साबित हुई । आप भी क्या इन रणबांकुरों को धन्यवाद नहीं करेंगे कि इन्होंने भूख को एक बार फिर सनसनी नहीं बनने दिया ? लिरिल की सनसनी के दौर में भूख से मौतें भी कोई सनसनी है भला ? अब देखिए मदारियों ने मजमाई ख़बरों का एसा हुनर दिखाया कि इन मौतों से अधिक फ़ुटेज तो बोरवेल में फँसी बच्ची सन्नो पा गई । धन्य हो ।

एक अरसे बाद आज फिर अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान ( आईएफपीआरआई ) की वेबसाईट खोल कर बैठा हूँ । यह वही संस्था है जो ग्लोबल हंगर इंडेक्स जारी करती है । संस्था ने अपनी पिछली रिपोर्ट 2017 के अक्टूबर माह में जारी की थी और दुनिया के 119 देशों में

किए सर्वे में भारत को सौवें स्थान पर पाया था । उत्तरी कोरिया , इराक़ , श्रीलंका , नेपाल और बांग्लादेश भी इस सूची में हमसे बेहतर स्थिति में खड़े हैं । जिस पाकिस्तान को हम असफल राष्ट्र मान रहे हैं , उसकी और हमारी हालत इस मामले में लगभग एक जैसी है । इस सूची के अनुसार हमारे मुल्क में 19 करोड़ लोगों को भरपेट खाना नहीं मिलता । तीन हज़ार बच्चे प्रतिदिन कुपोषण के चलते मर जाते हैं । पाँच साल तक के तीस फ़ीसदी बच्चे अंडर वेट हैं । इक्यावन फ़ीसदी महिलाओं में ख़ून की कमी है । हर छठा आदमी कुपोषित है और एड्स , टीबी व मलेरिया से ज़्यादा मौतें भूख से होती हैं । यह सब तो तब है जब हम दावा कर रहे हैं कि हम अच्छे दिनों की ओर बढ़ रहे हैं मगर सच्चाई यह है कि सन 2016 की पिछली रिपोर्ट के मुक़ाबले हम तीन पायदान और नीचे गिरे हैं । पहले हम 97वे नम्बर पर थे जो अब सौवाँ हो चुका है । इस साल अक्टूबर में फिर यह इंडेक्स जारी होगी । भगवान जाने अब हमारी क्या हालत निकले । यह सब तो तब है जब हम खाद्यान्न उत्पादन में दुनिया भर में दूसरे नम्बर पर हैं । हमारी आधी आबादी खेती में लगी है और हम सुबह शाम हरित क्रांति के गीत गा रहे हैं ।

आँकड़े बताते हैं कि देश में चालीस फ़ीसदी सब्ज़ी और फल तथा बीस फ़ीसदी अनाज सप्लाई चेन में ही नष्ट हो जाता है । हमारी सार्वजनिक वितरण प्रणाली ढकोसला साबित हुई है और मनरेगा , मिड डे मील और खाद्य सुरक्षा क़ानून भी दलालों और सरकारी अफ़सरों की जेब के हवाले है । खेती घाटे का सौदा है और आधी श्रम शक्ति की खपत के बावजूद जीडीपी में खेती की हिस्सेदारी केवल तेरह फ़ीसदी है ।

मगर हमें इन सब बातों से क्या ? हमें तो 2019 की तैयारी करनी है । मंदिर बनाना है । गाय बचानी है । लव जेहाद रोकना है । विरोधियों को सबक़ सिखाना है । बचे प्रदेशों में सरकार बनानी है । गाल बजाना है और रोज़ अपनी पीठ थपथपानी है । व्यर्थ के स्यापों में फँसने की कोई तुक है भला ? ग़रीब तो मरने को ही होता है , सो मरे । चलिए आप भी इस लेख को उठा कर फेंकिए और कुछ और बढ़िया सी बात कीजिए ।

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