सुंदर मुंदरिये हो
रवि अरोड़ा
रविवार का पूरा दिन लोहड़ी के आयोजनों में गुज़रा । हर जगह जलती लोहड़ी , मूँगफली और रेवड़ियाँ , खाना-पीना , ढोल पर नाचते लोग , पंजाब के लोक गीत तथा फ़िल्मी गाने । आज रह रह कर अपने बचपन की लोहड़ी ख़ूब याद आई । बेशक हमारी लोहड़ी इतनी भव्य नहीं थी मगर उसमें एक बात थी , मिठास थी । अनजान लोगों को भी आपस में जोड़ने की एक रवायत थी , जो शायद अब कहीं गुम हो गई है । हमारे दौर में लोहडी एक दिन का त्योहार होता ही नहीं था । दस पंद्रह दिन पहले ही हम बच्चे लोग पेड़ों की टहनियाँ काटना शुरू कर देते थे । पेड़ों का महत्व तब न हमें पता था और न ही समाज को । पता तो वैसे अब भी नहीं है ।
ख़ैर लकड़ियाँ जमा करने के बाद शुरू होता था वह काम जिसका सारे साल हम बच्चे इंतज़ार करते थे । टोलियाँ बना बना कर हम लोग घर घर जाते थे और लोहड़ी माँगते थे । जिसके भी घर जाते वह हमें मूँगफली , रेवड़ियाँ और फुल्ले देता । पोपकोर्न जैसा शब्द हमने कभी सुना ही नहीं था । खाने पीने के सामान के साथ लोग बाग़ हमारी टोली के बच्चों की गिनती के हिसाब से हमें पैसे देते थे। किस घर से पंज़ी ( पाँच पैसे ) और किस घर से दस्सी ( दस पैसे ) मिलती है , यह हमें सारे साल याद रहता । कौन सा घर अच्छा है और और सा ख़राब , हम लोग दूसरी टोलियों को भी बेहिचक बता देते थे । जो कुछ नहीं देता था उसके लिए काग़ज़ के भोंपू हमने बना रखे थे और उसके दरवाज़े पर ज़ोर ज़ोर से भोंपू पर चिल्लाते थे- हुक्के पे हुक्का ये घर भुक्खा। यदि पता चल जाता कि इस घर में मौत हुई है और वे लोग लोहड़ी नहीं मनाएँगे तो उस घर में कोई बच्चा नहीं जाता था ।
पंजाबी घरों में कोई दिक्कत नहीं आती थी मगर जो पंजाबी नहीं थे , उन्हें समझाना पड़ता था कि लोहड़ी पर हम बच्चों की सेवा-पानी करनी उनके लिए कितनी ज़रूरी है । परंपरवादी क़िस्म के लोग लोहड़ी का गीत सुनाये बिना कुछ नहीं देते थे और हम बेसुरे बच्चे बड़ी तन्मयता से एक सुर में गाते थे- सुंदर मुंदरिये हो, तेरा कौन विचारा हो , दुल्ला भट्टी वाला हो, दुल्ले दी ती विआई हो, सेर शक्कर पाई हो, कुड़ी दे जेबे पाई हो, कुड़ी कौन समेटे हो, चाचा गाली देसे हो , चाचे चूरी कुट्टी हो, जिम्मीदारा लूटी हो, जिम्मीदार सुधाये हो, कुड़ी डा लाल दुपटा हो, कुड़ी दा सालू पाटा हो, सालू कौन समेटे हो,आखो मुंडियों ताना , ताना बाग़ तमाशे जाना ताना …तब इस गीत का अर्थ नहीं मालूम था । बड़े हुए तो पता चला कि मुंदरी नाम की एक सुंदर लड़की थी , जिस का अपना कोई नहीं था और जो थे , उनकी निगाहें सीधी नहीं थीं । लड़की पर ज़माने की बुरी निगाहें थीं और एसे में उस ज़माने का रोबिनहुड दुल्ला डाकू उसे अपने बेटी बना कर उसकी शादी करता है और लाल जोड़े में एक सेर शक्कर उपहार देकर विदा करता है ।
इस कथा और उससे गुँथे लोहड़ी के इस गीत को आज सुनता हूँ तो फक्र होता है कि हमारा समाज अपने आदर्श , अपने आइकन चुनने में कभी ग़लती नहीं करता । डाकू होने के बावजूद दुल्ला भट्टी वाला आज भी उसकी स्मृतियों में है । दुल्ला ही क्यों , अपने तमाम नायक चुनने में हम बड़ी महारत ही रखते है मगर फिर भी सवाल तो उठता ही है कि उन नायकों को हम अपने आसपास की दुनिया में क्यों नहीं पहचानते ? यदि आज दुल्ला होता तो क्या हम उसे अपना आदर्श मानते ? क्या किसी पुलिस मुठभेड़ में मारा नहीं गया होता दुल्ला ? क्या हम दुल्ले को हम उसकी जाति धर्म के अतिरिक्त जानते ? सैंकड़ों साल तक लोहड़ी पर दुल्ले को याद करने के बावजूद हम अपने आसपास मजलूमों के ख़ैरख़्वाब कोई और दुल्ला क्यों पैदा नहीं कर पा रहे ? क्या कोई समाज अपने नायकों के सृजन के बिना चल सकता है ? कहानी-कविताओं और गीतों से बाहर कब आएँगे ये हमारे नायक ? क्या आसमान से आएँगे हमारे ये नायक ? दुल्ले की बाबत सोचते सोचते कई सवाल दिलो-दिमाग़ में खड़े हो रहे हैं । आज जब मुंदरियों की संख्या करोड़ों में है । लूटने वाले ज़मींदार चारों तरफ़ हैं , एसे में कोई दुल्ला आज होता भी तो बेचारा अकेला क्या कुछ कर पाता ? चलिए छोड़िये इस सिरखपाई को । आइये बस गीत गाते हैं- सुंदर मुंदरिए हो …।