सिर्फ बोल गंगा मैया की जय
रवि अरोड़ा
गुरुवार का दिन था और मैं हापुड़ की ओर जा रहा था । छिज़ारसी टोल प्लाज़ा पर गाड़ियों की इतनी लम्बी कतार थी, जैसी पहले कभी नहीं देखी थी। पता चला कि वाहनों की ये रेलम पेल गंगा स्नान के इच्छुक लोगों की है। बस फिर क्या था, मैं वाहनों में बैठे लोगों को गौर से देखने लगा और उनकी पृष्ठभूमि का अनुमान लगाने में जुट गया । कौन हैं ये लोग, कहां के रहने वाले होंगे, शहरी हैं या देहाती , पढ़े लिखे हैं या अनपढ़, पैसे वाले हैं या गरीब गुरबा..वगैरह वगैरह । नतीजे के तौर पर मैं दावे से तो कुछ नहीं कह सकता मगर मुझे लगा कि अधिकांश लोग ग्रामीण पृष्ठभूमि के ही हैं। बेशक इनमें से बड़ी संख्या में लोग बड़ी और आधुनिक कारों में बैठे थे मगर उनके कपड़ों और हाव भाव से पता चल रहा था कि आए ये लोग भी हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश अथवा दिल्ली के किसी गांव से ही हैं। सैंकड़ों साल पहले इनके पूर्वज भी इसी तरह कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा स्नान को गढ़ गंगा आए होंगे। बेशक तब उनके पास आधुनिक वाहन नहीं थे इसलिए मीलों का सफर उन्होंने पैदल अथवा बैल गाड़ियों से ही तय किया होगा । कुछ वर्ष पहले इनके माता पिता ट्रैक्टरों से मेले में आए होंगे और अब उनकी ये संतानें कारों में गंगा स्नान को जा रही हैं। ये सब देख कर मन सवालों के हवाले हो गया । क्या शताब्दियों में गंगा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बदला । आज जब गंगा उद्योगों और नगरों की गंदगी से छुटकारा पाने का जरिया बन कर रह गई है तब भी उसके प्रति लोगों की आस्था में रत्ती भर भी कमी क्यों नहीं आई है ? खुद केंद्रीय और उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि गंगा और उसकी सहायक नदियों में सीधे गिरने वाले 326 नालों में से महज 101 नाले ही विभिन्न सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से जुड़े हैं, जबकि अन्य नाले अब भी गंगा और उसकी सहायक नदियों में सीवेज और अन्य अपशिष्ट प्रवाह का प्रदूषण फैला रहे हैं। फिर भी ऐसा क्या है कि हम सीवर के पानी में नहा कर उद्घोष कर रहे हैं- गंगा मैया की जय।
आज अख़बारों से पता चला कि कार्तिक पूर्णिमा के गंगा स्नान को गढ़ मुक्तेश्वर में 35 लाख लोग पहुंचे थे । यह संख्या पिछले सालों से कहीं ज्यादा थी। दो माह बाद प्रयागराज में शुरू होने जा रहे कुंभ मेले में भी इस बार रिकॉर्ड तोड़ भीड़ उमड़ने का अनुमान है। कहा तो यह भी जा रहा है कि लगभग 45 दिन तक चलने वाले इस कुंभ मेले में 40 करोड़ लोग इस बार आयेंगे । पिछली बार यह संख्या 15 करोड़ थी। अंग्रेजों के जमाने से अब तक के उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि कुंभ मेले में शामिल होने वालों की भीड़ देश की जनसंख्या के अनुपात में अब कई गुना बढ़ चुकी है। पुराने दौर में लेखकों , पत्रकारों और विदेशी यात्रियों के अनुमान ही आंकड़े होते थे मगर अधिकारिक रूप से पहली बार साल 1954 में यह गिनती हुई और पाया गया कि देश की आबादी का एक फीसदी लोग इस मेले में आए थे । मगर अब जनवरी में होने जा रहे कुंभ मेले में उमड़ने वाली भीड़ का आंकड़ा कुल आबादी का 28 फीसदी होने जा जा रहा है। पिछले कुंभ में आए पंद्रह करोड़ लोगों का हुजूम चुगली करता है कि चालीस करोड़ नहीं तो कम से कम 25 करोड़ लोग तो फिर भी आयेंगे ही । अब मेरी समझ से परे है कि ऐसा क्या हुआ है कि साल दर साल, कुंभ दर कुंभ गंगा स्नान की इच्छा लोगों में और अधिक बलवती होती जा रही है ?
एक बार फिर अनुमान का सहारा लेता हूं तो लगता है कि भीड़ की सही सही संख्या पता लगाने का जब कोई पुख्ता जरिया ही अब तक विकसित नहीं हुआ है तो इन दावों पर यकीन कैसे किया जा सकता है ? यह भी तो हो सकता है धर्म के आधार पर हो रही देश की राजनीति द्वारा भी अपने लाभ के लिए इस संख्या को बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जा रहा हो । उधर, किसी से छुपा भी नहीं है कि हमारी संस्कृति ही तीज त्यौहारों और मेले ठेलों की है तो शायद लोग बाग सचमुच इतनी बड़ी संख्या में आ भी जाते होंगे। एक बड़ी वजह यह भी लगती है कि देश पर सदियों से हावी रहे पुरोहित वर्ग ने संस्कृति और धर्म का बड़ी चालाकी से घालमेल तैयार कर दिया हो और वो नदियां जिनके किनारे संस्कृतियां पल्लवित और पोषित हुई थीं उन्हें झूठी सच्ची धार्मिक कहानियों से जोड़ कर आम जनमानस को परोस दिया हो। किसने छुपा है कि धर्म के नाम पर लोगों को डरा कर रखने का खेल तो दुनिया का प्राचीनतम खेल है ही । यदि ऐसा नहीं होता तो भला यह कैसे होता कि मां कही जाने वाली गंगा को निर्मल और अविरल करने में तो किसी राजनीतिक दल, उसके नेता, अभिनेता, उद्योगपति, समाजसेवी और प्रबुद्ध नागरिक की कोई रुचि है नहीं और सारा जोर गंगा में डुबकी लगा कर बस अपने पाप धोने, मोक्ष पाने अथवा धार्मिक लाभ उठाने पर ही है । अब मेरी बात यदि आपको बुरी लगी हो तो इसे वापिस लेता हूं और आपकी ही तरह मैं भी जयकारा लगाता हूं- गंगा मैया की जय ।