सलाम रोहिणी आचार्य को

रवि अरोड़ा
मेरी एक दर्जन से अधिक बहनें हैं। चार तो मां जाई भी हैं। सभी में एक बात यकसां है और वह यह कि सभी अपने सास ससुर के साथ साथ अपने मां बाप का भी पूरा खयाल रखती हैं। मेरी मां तो अब नहीं रहीं मगर पिता और मैं अब भी एक ही छत के नीचे रहते हैं मगर पता नहीं क्यों मुझे अपने मां बाप की वे जरूरतें अक्सर नहीं दिखीं जो दूर बैठी बहनों को दिख जाती हैं। कब मां अथवा पिताजी को गरम जुराब जैसा कुछ चाहिए और कब उनका क्या खाने का मन है यह मुझे तब पता चलता है जब कोई बहन वह लेकर मेरे घर आ जाती है। चचेरी, मौसेरी बहनों तथा पत्नी की बहनों का भी यही हाल है और वे सभी अपने मां बाप का भरपूर पीछा करती हैं और हरसूरत बेटों से अधिक अपने मां बाप का खयाल रखती हैं। मेरे कहने का यह मतलब कतई नहीं है कि मैं अथवा मेरा कोई भाई गैर जिम्मेदार है मगर पता नहीं क्यों मां बाप की देखभाल में हम सभी भाई अपनी बहनों से पीछे ही रह जाते हैं। यकीनन आपके परिवार में भी ऐसा ही होता होगा । अब ऐसा हो भी क्यों नहीं, ये महिलाएं होती ही ऐसी हैं। तभी तो देखिए न, दो दो मजबूत बेटों के होते हुए भी लालू प्रसाद यादव को उनकी एक बेटी ने अपनी किडनी दान की । बेटे भी वे जो बाप की पूरी विरासत का अकेले रसास्वादन कर रहे हैं।
अजब विडंबना है कि जब भी शरीर का कोई अंग दान करने की नौबत आए तो पुरूष किसी बिल में जाकर छुप जाते हैं और अंतत महिलाओं को ही आगे आना पड़ता है। चलिए यह भी स्वीकार कर लिया जाए मगर जब स्त्री को किसी अंग की जरूरत होती है तब भी उसके घर के पुरुष अपने बिलों से बाहर क्यों नहीं आते ? साल 2020 में हुए एक सर्वे के अनुरूप भारत में हो रहे ऑर्गन ट्रांसप्लांट में 81 फीसदी लाभार्थी पुरूष होते हैं और महिलाओं का आंकड़ा बीस फीसदी को भी नहीं छू पाता। अपने पति की किडनी अथवा लिवर जैसा कोई अंग खराब होने पर 90 फीसदी पत्नियां ही आगे आईं जबकि केवल दस फीसदी पतियों ने पत्नी को अपना अंग दान किया । जबकि कड़वी सच्चाई यह है कि पोषण के अभाव और अन्य कारणों के चलते महिलाओं के शारीरिक अंग पुरुषों के मुकाबले अधिक खराब होते हैं।
खैर, बात रोहिणी आचार्य की हो रही थी। आज देश में ऐसा कोई नहीं है जो उसकी तारीफ न कर रहा हो। इस काम में वे लोग भी जरूर शामिल होंगे जिन्होंने अपने घर की किसी स्त्री को अंग दान के अभाव में मर जाने दिया होगा । पता नहीं रोहिणी के इस कदम से उन्हें थोड़ी बहुत आत्म ग्लानि भी हुई होगी अथवा नहीं ? वैसे हो तो यह भी सकता है कि वे मुतमईन हों कि इस पितृसत्तात्मक समाज में ऐसा करना उनका फर्ज था ही नहीं। वह देश जहां भ्रूण हत्या को लेकर डेढ़ सौ साल से अधिक पुराना कानून हो और फिर भी जहां गर्भ में हत्या के चलते स्त्रियों की तादाद पुरुषों की तुलना में 1000 मुक़ाबिल 943 हो । जहां दहेज के नाम पर स्त्रियों का उत्पीड़न रोकने को एक से बढ़कर एक कानून हों और फिर भी विवाहिताओं के शोषण की एफआईआर सर्वाधिक हों । जहां बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का राग अलापते अलापते सरकारों के गले बैठ गए हों और फिर भी लड़कियों को लड़कों के मुकाबले शिक्षा के अवसर न मिलते हों, वहां एक अदना सी रोहिणी पूरे समाज को कैसे झकझोर सकती है ? मगर फिर भी जी तो यही चाहता है कि पूरा समाज उठे और रोहिणी आचार्य को पूरे सम्मान से सलाम पेश करे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

RELATED POST

जो न हो सो कम

रवि अरोड़ाराजनीति में प्रहसन का दौर है। अपने मुल्क में ही नहीं पड़ोसी मुल्क में भी यही आलम है ।…

निठारी कांड का शर्मनाक अंत

रवि अरोड़ा29 दिसंबर 2006 की सुबह ग्यारह बजे मैं हिंदुस्तान अखबार के कार्यालय में अपने संवाददाताओं की नियमित बैठक ले…

भूखे पेट ही होगा भजन

रवि अरोड़ालीजिए अब आपकी झोली में एक और तीर्थ स्थान आ गया है। पिथौरागढ़ के जोलिंग कोंग में मोदी जी…

गंगा में तैरते हुए सवाल

रवि अरोड़ासुबह का वक्त था और मैं परिजनों समेत प्रयाग राज संगम पर एक बोट में सवार था । आसपास…