सरस्वती लक्ष्मी के देश में
रवि अरोड़ा
सीबीएसई बोर्ड ने बारहवीं का रिज़ल्ट जारी कर दिया है । हर बार की तरह इस बार भी अख़बारों ने इसी शीर्षक से हमें परीक्षा के परिणाम दिखाये कि लड़कियों ने फिर मारी बाज़ी । दशकों से परीक्षा परिणाम की ख़बरें पढ़ते हुए हम सबको इस शीर्षक को देखने की आदत सी पड़ गई है । परीक्षा दसवीं की हो या बारहवीं की , बोर्ड यूपी का हो अथवा सीबीएसई या आईसीएसई का , ख़बर हर बार कुछ यही होती है कि बेटियों का परिणाम बेटों से इतने फ़ीसदी बेहतर रहा । टॉपर भी अधिकांशत लड़कियाँ ही होती हैं । यक़ीनन लड़कों के मुक़ाबले ये बच्चियाँ सारे साल अधिक मेहनत करती हैं और पूरी तन्मयता से अपनी पढ़ाई पर ध्यान भी देती हैं । यह उसी का फल है कि एसा सुखद एहसास उनके हिस्से आता है । एसी ख़बरें पढ़ कर हम सभी ख़ुशी का नाटक करते हैं । देखा दिखाई इन बच्चियों को आशीर्वाद देते हैं और उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं । मगर हम जानते हैं कि आगे अब उनका भविष्य उज्जवल नहीं होने वाला । इनके उज्जवल भविष्य में सबसे बड़ी बाधा हम ही खड़ी करेंगे । अच्छे नम्बरों से पास होने के बावजूद इनमे से आधी से अधिक लड़कियों को अब घर बैठा दिया जाएगा । या तो अब उनकी शादी कर दी जाएगी या फिर वे चूल्हे चौके में अपने घर की अन्य महिलाओं का हाथ बँटाएँगी। जो लड़के पढ़ाई में औसत थे वे कालेजों में एडमिशन लेंगे और बाद में अच्छी नौकरी में जाकर उन्ही लड़कियों पर हुक्म चलाएँगे जो कभी उनसे अधिक होशियार थीं । बेशक अवसर मिलता तो शायद वे उनसे भी अधिक सफल होतीं । मगर ये अवसर उन्हें भला दे कौन ?
भारत के आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के बेशक हज़ार कारण गिनाये जायें मगर लिंग भेद से बड़ा कोई कारण आपको नहीं मिलेगा । जिस देश अथवा समाज में अवसरों का बँटवारा ही जब पक्षपात के आधार पर हो वहाँ विकास की मंज़िल आसानी से मिलेगी भी कैसे । पिछली जनगणना के अनुसार भारत में स्त्री साक्षरता दर 64 फ़ीसदी है जबकि पुरुष साक्षरता 82 परसेंट है । बिहार और राजस्थान जैसे राज्यों में तो बमुश्किल आधी महिलायें ही साक्षर हैं । यह उस देश की सच्चाई है जहाँ हर साल परीक्षा परिणामों में यह साबित होता है कि पढ़ाई लिखाई में महिलायें पुरुषों से बेहतर हैं ।सरकारी आँकड़ा कहता है कि 15 से 18 साल की 40 फ़ीसदी बच्चियाँ कहीं पढ़ने नहीं जातीं । यानि वे स्कूल गई भी हों तो दसवीं अथवा बारहवीं के बाढ़ उनकी पढ़ाई छुड़वा दी गई है । देश में पंद्रह करोड़ महिलायें एसी हैं जो अपना नाम भी नहीं लिख सकतीं । यह उस देश की ज़मीनी हक़ीक़त है जहां विद्या के प्रतीक रूप में एक महिला यानि देवी सरस्वती विराजमान है ।
विश्व बैंक ने हाल ही में एक सर्वे कराया और उसके अनुरूप भारत में केवल 27 फ़ीसदी महिलायें कामकाजी हैं । यानि जो लड़कियाँ पढ़ लिख गईं उन्हें भी रोज़गार के अवसर नहीं मिले । यानि तीन चौथाई महिलाओं का देश की जीडीपी में कोई भूमिका नहीं है । बेशक घर का काम भी काम है मगर फिर भी इसे क़ाबिल श्रम के दुरूपयोग ही कहा जाएगा । इसी सर्वे में कहा गया है कि भारत में बेहद पढ़ी लिखी 39 पटसेंट महिलायें एसी हैं जो केवल अपने घरों तक सीमित हैं । बेशक भारत में कामकाज के लिए महिलाओं के अनुकूल माहौल अभी नहीं है और स्कूल टीचिंग और नर्स के काम से महिलायें आगे नहीं बढ़ पा रहीं । आटो और इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में तो महिलाओं की मौजूदगी न के बराबर है मगर सवाल यह भी है कि जो महिलायें इन क्षेत्रों में हैं क्या उन्हें भी वहाँ पुरुषों के बराबर वेतनमान मिल रहा है ? आटो और इंजीनियरिंग ही क्यों बैंकिंग क्षेत्र को छोड़ कर अधिकांश सेक्टर में महिलाओं को दोयम दर्जे का कर्मचारी ही तो माना जा रहा है । आज हम बात बात पर चीन का ज़िक्र करते हैं मगर उससे कुछ सीखने को तैयार नहीं हैं । हमसे अधिक रूढ़िवादी समाज होने के बावजूद उसने अपने महिला श्रम का सदुपयोग किया और इस ऊँचाई तक पहुँचा । चीन क्या इस मामले में तो हम नेपाल, मलेशिया, रूस और साउथ अफ़्रीका से भी बहुत पीछे हैं । धन को देवी यानि एक महिला लक्ष्मी के रूप में पूजने वाले मुल्क की यह हक़ीक़त है कि यहाँ महिलायें ही धन कमाने से महरूम हैं । आज हम अपनी बच्चियों के अच्छे नम्बरों से पास होने पर उन्हें बधाई दे रहे हैं मगर यह बधाई किस काम की जिसमें हम उनके सुनहरे भविष्य का मार्ग ही प्रशस्त न करें । मुआफ़ कीजिएगा पढ़ाई छोड़ कर अब ब्याह के इंतज़ार में घर बैठने जा रही इन करोड़ों बच्चियों को झूठी शाबाशी देने का तो अपना मन नहीं है ।