सरकारी स्टाइल

रवि अरोड़ा

भीमताल के पास से दर्जनों बार गुज़रा हूँ । हर बार इस झील के बीचोंबीच एक सुंदर सा टापू बहुत आकर्षित करता था मगर कभी उसके क़रीब जाना नहीं हुआ । इस बार उधर गया था तो भीमताल में ही ठहरा । नैनीताल जिले में नैनी झील के बाद दूसरी बड़ी झील भीमताल ही तो है । झील के क़रीब जाकर उस टापू के बाबत जानकारी की तो पता चला कि वहाँ लेक एक्वेरियम है और दुनिया भर से लाई गईं समुद्री मछलियाँ वहाँ बड़े बड़े काँच के बक्सों में रखी गई हैं । बताया गया कि इस एक्वेरियम को देखने का साठ रुपये प्रति व्यक्ति की दर से टिकिट लगता है और नाव से ही वहाँ जा सकते हैं । यानि नाव का किराया डेड़ सौ रुपये अलग से देना पड़ेगा । चूँकि पत्नी साथ थीं अतः पैसे ख़र्च करने का मन बनाया और साथ में ही बने नैनीताल ज़िला विकास प्राधिकरण के काउंटर से दो टिकिट लीं और नाव चालक यूनियन से भी पर्ची कटवा ली । जिस नाव में हमें बैठाया गया उसे पड़ौस के ही गाँव का लड़का महेश चला रहा था । बातचीत हुई तो उसने बताया कि लेक एक्वेरियम जाकर समय ख़राब न करें, वहाँ कुछ भी नहीं है और उतनी देर में मैं आपको पूरी झील की सैर करा देता हूँ । बक़ौल उसके हमने लेक एक्वेरियम का टिकिट लेकर ग़लती की है और यदि हम उसे पहले मिल जाते तो हमारे पैसे ख़राब होने से बच जाते । अब चूँकि पैसे ख़र्च किए थे अतः हमने लेक एक्वेरियम ले जाने को ही नाव चालक से कहा । वहाँ पहुँच कर हमने देखा कि अरे यहाँ तो वाक़ई कुछ नहीं है । शीशे के बड़े बड़े शोकेस तो हैं मगर मछलियाँ ग़ायब हैं । अधिकांश शोकेस पर पर्ची लगी हुई थी कि सफ़ाई कार्य हेतु टैंक ख़ाली किया गया है और असुविधा के लिए खेद है ।

लेक एक्वेरियम से लौट कर मन बहुत खिन्न हुआ । पर्यटन स्थलों पर व्यापारी तो लूटते ही हैं मगर अब क्या सरकार भी सैलानियों को बेवक़ूफ़ बनाने लगी है ? जब शोकेस में मछलियाँ ही नहीं हैं तो रोज़ाना सैंकड़ों पर्यटकों को टिकिट क्यों बेचे जा रहे हैं ? सवाल यह भी मन में आया कि जब इतनी सुंदर जगह है और बड़े बड़े शोकेस भी हैं तो मछलियाँ कौन सी मंगल ग्रह से आनी हैं ? झील में ही पचासों तरह की मछलियाँ तैर रही हैं , क्यों नहीं उन्हें ही इन शो केसों में सज़ा देते ? इस सुंदर झील के बीच प्राकृतिक रूप से बने इस बेहद ख़ूबसूरत टापू की एसी दुर्दशा क्यों है , जानने की प्रबल इच्छा हुई तो आस पड़ौस से पूछताछ कर डाली । पता चला कि वर्ष 2010 से पहले यहाँ एक रेस्टोरेंट था और ख़ूब चलता था मगर उसी साल प्रदेश सरकार ने इस जगह को अपने अधिकार में ले लिया और डेड़ करोड़ रुपये ख़र्च कर यह एक्वेरियम बना दिया । इसके संचालन का भी ठेका दिल्ली की एक कम्पनी को दिया गया । शुरू में कुछ साल तक तो यह एक्वेरियम ढंग से चला मगर बाद में इसका भी वही हाल हुआ जो हमारे देश में सरकारी सम्पत्ति और उसके संस्थानों का होता है । ज़ाहिर है कि अब तक मेरी तरह आपके मन में भी यह सवाल उठ चुका होगा कि हमारे यहाँ जिस काम के साथ सरकारी शब्द लग जाये , आमतौर पर उसका सत्यानाश ही क्यों हो जाता है ?

इसमें तो कोई दो राय नहीं है कि देश को विकास की इस ऊँचाइयों तक पहुँचाने में एक दौर में सार्वजनिक क्षेत्र का बड़ा योगदान रहा है । शायद यही वजह रही कि आज़ादी के समय हमारे पास केवल पाँच सार्वजनिक उपक्रम थे और उनमे मात्र 29 करोड़ रुपये लगे हुए थे और वर्ष 1991 में नई औद्योगिक नीति लागू होने तक हम अपने चरम तक पहुँच गये थे । केवल छः क्षेत्र में आज भी केंद्र ने बारह लाख करोड़ 320 सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों में लगा रखे हैं । राज्यों का आँकड़ा भी इससे कम नहीं है । इन कम्पनियों में काम कैसे होता है इसका एक उदाहरण यह है कि जितने कर्मचारियों से टाटा स्टील जितना लोहा बनाती है , उससे सात गुना अधिक कर्मचारियों वाली स्टील अथोरिटी नहीं बना पाती । सरकारी स्टाइल से चल रही ये कम्पनियाँ मुनाफ़ा तो कमाती नहीं मगर अफ़सरों और नेताओ की जेबें ज़रूर भरती हैं । इन कम्पनियों में घाटा जब हद से ज़्यादा बढ़ जाता है तो उन्हें कौड़ियों के दाम अपने चहेते उद्यमियों को बेच कर फिर अपनी जेबें भर ली जाती हैं । बताते हैं प्राकृतिक संपदा के मामले में हमारा देश दुनिया में सातवें स्थान पर है । देश की सार्वजनिक सम्पत्ति 1340 लाख करोड़ की है । आँकड़े कहते हैं कि देश के पास प्रति व्यक्ति पचास लाख रुपये की सम्पदा है । सरकारों की ज़िम्मेदारी है कि इस सम्पत्ति का अपने नागरिकों के हित में प्रयोग करे मगर दशकों से सब जगह हो वही रहा है जो भीमताल के लेक एक्वेरियम में दिखाई पड़ रहा है । यानि सरकारी स्टाइल ।

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