सन्नाटे का सन्नाटा

रवि अरोड़ा
लगभग दस साल पहले एक मित्र ने अलीगढ़ के अपने पैतृक गांव बरौली भीकमपुर ने मन्दिर बनवाया। बड़ा आयोजन था अतः मैं भी पहुंचा। आलू की सब्जी और कचौड़ी का भंडारा वहां चल रहा था । साथ में बेहद खट्टा बूंदी का रायता भी था । रायता क्या मिर्च का मजेदार सफेद घोल सा था । पूछने पर पता चला कि यह सन्नाटा है। हालांकि सन्नाटे के बाबत सुना तो बहुत था मगर हलक के नीचे उतारने का मौका पहली बार मिला था। दरअसल पूरे बृज क्षेत्र में सन्नाटा खानपान से जुड़ी कोई शय नहीं वरन एक पूरी परम्परा है। मगर अब इसका स्वरूप पूरी तरह बदल चुका है। एक दौर में देहात के किसी के घर दावत होती थी तो गांव के लोग बाग अपने घर से बासी और खट्टा मट्ठा व दही उसे भिजवा देते थे । पूरे गांव से जमा किए गए मट्ठा और दही में चार गुना पानी और भरपूर नमक और लाल मिर्च डाल कर बनाया जाता था यह सन्नाटा। बेहद खट्टा और तीखा यह रायतानुमा पेय पदार्थ तले भोजन को तो हजम करता ही है साथ ही साथ पौष्टिक भी होता है । इसे पीने के बाद आदमी भीतर तक हिल जाता है और उसके मुंह से बोल ही नहीं फूटता । शायद इसी लिए ही इसका नाम सन्नाटा रखा गया होगा ।
वक्त बदला और लोगों के आचार विचार भी । बृज क्षेत्र में सन्नाटा आज भी मौजूद है मगर अब कोई किसी अन्य से दही अथवा मट्ठा नहीं लेता । कोई जबरन दे जाए तो उसे इसमें अपना अपमान लगता है। लोगबाग खुद ही कई दिन तक मट्ठा और दही जमा कर उसे खट्टा करते हैं और फिर दावत में सन्नाटा बना कर सबको परोसते हैं। बुलंदशहर, अलीगढ़ और मथुरा आदि के सैंकड़ों रेस्टोरेंट में आज भी आलू पूड़ी के साथ सन्नाटा मिलता है मगर उसका पुराना स्वरूप तो नदारद ही है। कथित आधुनिकता और मध्यवर्गीय अहंकार ने हमसे जो कुछ छीना है उसमें हमारा आपसी सौहार्द और सामूहिकता का भाव सबसे ऊपर है। अब बारातें घरों में नहीं ठहरतीं सो अड़ोस पड़ोस के घरों से न रजाई कंबल आता है और न उनके यहां अपने मेहमान ठहराए जाते हैं। पड़ोसी तो क्या अब तो सगे बहन भाइयों के यहां भी कटोरी भर सब्जी आदि नहीं भेजी जाती। एक दौर था जब बर्तनों पर गृहस्वामी का नाम लिखवाता जाता था। इसकी जरूरत भी इसलिए होती थी कि खाने पीने के सामान की अदल बदल में घर के आधे बर्तन तो पड़ोसियों के यहां पड़े होते थे । अब किसी बच्चे का स्वेटर उसके पड़ोस की चाची, ताई अथवा मौसी नहीं बुनती। बाहर जाने पर घर की चाबियां पायदान के नीचे बेशक रख दें मगर पड़ोसी को देने से अब हर कोई झिझकता है। न अब महिलाएं धूप सेंकने के बहाने एक दूसरे के आंगन में बैठती हैं और न ही कोई पुरुष किसी पड़ोसी के घर बिना फोन किए जाता है। आधुनिक फ्लैटों में अब तो यह भी किसी को पता नहीं होता कि पड़ोस में भला रहता कौन है ? कोई अपने ही घर में अकेला मर जाए तब भी लाश के सड़ने से पहले किसी को ख़बर नहीं होती। हो सकता है कि आधुनिक और संपन्न दिखने को यह सभी तमाशे जरूरी होते हों मगर फिर भी अजनबियत के इस सन्नाटे में कभी कभी अलीगढ़ के सन्नाटे जैसी चीजें याद तो आती ही हैं।

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