वाजपेयी होते तो
रवि अरोड़ा
देश के दसवें प्रधानमंत्री भारत रत्न स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी की दूसरी पुण्य तिथि पर आज पूरा देश उन्हें याद कर रहा है । मेरे स्मृति पटल पर भी आज जैसे वाजपेयी जी का ही क़ब्ज़ा है । हालाँकि वे 93 वर्ष का भरपूर जीवन जी कर इस दुनिया से विदा हुए मगर उनका ज़बरदस्त फ़ैन होने के नाते मन तो करता है कि काश वे आज भी ज़िंदा होते । क्या ही अच्छा होता कि यदि देश की कमान आज भी उन्ही के मज़बूत हाथों में होती । ज़ाहिर है कि वे तो जीते जी ही नेपथ्य में चले गए थे अतः एसी क़ल्पना ही बेमानी है मगर कल्पना तो ही है, उसका रस लेने हर्ज ही क्या है ? यूँ भी देश की सीमाओं पर आज लगभग वही स्थिति तो है जो उनके कार्यकाल में थी । कारगिल युद्ध के रूप में पाकिस्तान का जो छल देश ने 1999 में झेला, वही प्रपंच तो अब चीन कर रहा है । हाँ यह बात और है कि देश का वर्तमान नेतृत्व वाजपेयी जी जैसा साहस दिखा कर आर-पार की बात नहीं कर पा रहा । आर-पार तो दूर वर्तमान मोदी सरकार तो दुश्मनी पर उतारू पड़ौसी देश चीन का नाम तक लेने की भी हिम्मत नहीं कर रही और लाल क़िले से भी गुमनाम दुश्मनों को चेतावनी देने की ज़ुबानी जमा खर्ची भर कर रही है । अब एसे में स्वर्गीय वाजपेयी जी के चाहने वालों को यह कल्पना करने का हक़ तो है कि यदि वे होते तब भी क्या एसा ही होता ?
साल 1999 में सर्दियाँ ख़त्म होने पर भारतीय सेना कारगिल सेक्टर की अपनी चौकियों पर जब लौटी तो उसने पाया कि वहाँ पाकिस्तानी फ़ौज एलओसी के डेड सौ किलोमीटर भीतर आकर लगभग चार सौ चौकियों पर क़ब्ज़ा किये बैठी है । यह बात तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी जी के संज्ञान में तुरंत लाई गई तो वे आग बबूला हो गए और उन्होंने आनन-फ़ानन में फ़ौज को पोलिटिकल क्लीयरेंस देते हुए अपनी एक एक इंच ज़मीन ख़ाली कराने का आदेश दिया । यही नहीं कारगिल युद्ध के दौरान वे स्वयं बोर्डर पर तीन दिन तक फ़ौज के उत्साहवर्धन के लिए मौजूद रहे । उस समय अंतराष्ट्रीय परिस्थितियाँ एसी थीं कि अमेरिका पाकिस्तान के पक्ष में था और वहाँ के राष्ट्रपति क्लिंटन ने वाजपेयी जी को परमाणु युद्ध के नाम से भी डराया मगर वाजपेयी जी अपनी एक इंच ज़मीन छोड़ने पर भी राजी नहीं हुए । संसद पर हमले के समय भी सेना को कूच का आदेश देकर उन्होंने यही दृढ़ता दिखाई थी ।
विचारणीय है कि यदि आज वाजपेयी जी देश की कमान संभाल रहे होते तो क्या वे भी मोदी जी कि तरह चीन को यह क्लीन चिट दे देते कि उसने हमारी एक इंच भूमि भी नहीं क़ब्ज़ाई ? सीमा पर चार महीने से चीन से विवाद है और बीस जवान शहीद हो चुके हैं , क्या एसे में वाजपेयी भी एक बार भी चीन का नाम नहीं लेते ? क्या उनके शासन में भी यही होता कि रक्षा मंत्रालय अपनी वेबसाइट पर एक दिन चीनी अतिक्रमण की बात स्वीकारता और अगले दिन यह जानकारी हटा लेता ? कारगिल युद्ध के दौरान एक एक चोटी की जानकारी आम आदमी को थी मगर आज लद्दाख़ में क्या हो रहा है यह सेना और सरकार के अतिरिक्त किसी को नहीं मालूम ? मीडिया ही नहीं स्थानीय नागरिकों को भी कुछ बताया जा रहा । क्या वाजपेयी भी राष्ट्रीय सुरक्षा के इतने संवेदनशील मुद्दे पर जनता से एसा पर्दा रखते ? वाजपेयी जी ने मई माह में शुरू हुआ कारगिल युद्ध विजय के जयघोष के साथ 26 जुलाई को ख़त्म किया था । चीन ने भी इस बार मई में अघोषित युद्ध छेड़ा है मगर अब जुलाई क्या अगस्त भी ख़त्म होने को है , क्या वाजपेयी राज में भी यही सब दोहराया जाता ? आज अमेरिका भी हमारे साथ है । हिंद महासागर में उसका एटमी बेड़ा हमारी सुरक्षा को पहुँच चुका है । वाजपेयी होते तो क्या वे इसका लाभ चीन को झुकाने में नहीं लेते ?
इतिहास बेहद क्रूर है । वह किसी को नहीं बख़्शता । जिस नेहरू के देहांत पर पूरे देश में चूल्हा नहीं जला था आज वही देश नेहरू से सवाल करता है कि उन्होंने कैसे चीन के हाथों में 1962 में भारत की 38 हज़ार किलोमीटर भूमि जाने दी ? यह इतिहास आज वाजपेयी के साथ खड़ा दिखता है और कारगिल युद्ध में उनके फ़ैसलों के लिये उन्हें नायकों की फ़ेहरिस्त में शुमार करता है । कोई बड़ी बात नहीं कि इतिहास और आने वाली नस्लें जब मोदी शासन का ज़िक्र करें और चीन का ज़िक्र आने पर उनसे भी वही कड़वे सवाल करें जो मोदी भक्त आज नेहरू से करते हैं ।