वर्जित विषय
रवि अरोड़ा
हाल ही रंगकर्मी अभिनव सचदेवा और उनकी पत्नी वैशाली सचदेवा की लघु फ़िल्म ‘ पैड मैन पापा ‘ देखी । इस फ़िल्म में एक पिता अपनी जवान होती बेटी और पत्नी के समक्ष अक्षय कुमार की फ़िल्म ‘ पैड मैन ‘ देखने का प्रस्ताव रखता है । पैड मैन शब्द सुनते ही पत्नी नर्वस हो जाती है और बेटी के सामने एसी फ़िल्म का ज़िक्र करने पर पति को झिड़कती है । इस पर पति ऊँची आवाज़ में बार बार दोहराता है- पैड मैन-पैड मैन और पूछता है कि जब महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए पैड ज़रूरी वस्तु है तो इसका नाम लेने से कतराने की क्या ज़रूरत हैं ? फ़िल्म हौसला देती है कि ज़रूरी विषयों को वर्जित मान कर उन्हें दरकिनार करने से हम बाज आएं । वर्जित माने जाने वाले इस विषय पर बात होते देख मुझे सहसा वह तमाम विषय पंक्ति में खड़े दिखाई दिए , जिन पर बात करने का साहस अभी हम लोगों को जुटाना है ।
वैसे यह पूछना तो बनता ही है कि कोई विषय हमारे लिए वर्जित कैसे हो जाता है ? क्यों हम कैंसर जैसी बीमारी के बारे में तो खुलकर बात कर लेते हैं मगर बवासीर जैसे शब्द अपनी जबान पर लाने से कतराते हैं ? जबकि लगभग हर परिवार में एकाध व्यक्ति इससे पीड़ित है । हम खुलेआम जमुआई अथवा डकार लेने पर सहज रहते हैं मगर पाद निकलते ही शर्मिंदा हो जाते हैं । जबकि अच्छे स्वास्थ्य के लिए यह भी ज़रूरी है । भूख लगने पर बड़े फक्र से कहते हैं कि पेट में चूहे कूद रहे हैं मगर शौच की ज़रूरत को बताते हुए शर्मसार हो जाते हैं । यौन बीमारी खुलेआम बताना तो जैसे अपना उपहास करवाना ही है । चलिए इन्हें भी जाने दें मगर इस पर तो विचार करें कि जब पेट की भूख को तृप्त करने को हर बाज़ार में रेस्टोरेंट होते हैं तो उसी पेट की दूसरी ज़रूरत को शौचालय क्यों नहीं होते ? किसी भी शहर में चले जाइए हर जगह एक सी सूरत क्यों हैं ? लघु अथवा दीर्घ शंका को हम लोग घटों रोके रखते हैं । शौचालय ना जाना पड़े इसलिए घर से बाहर निकल कर महिलायें पानी ही नहीं पीतीं और किडनी रोग व पेशाब के संक्रमण का शिकार होती हैं । राजमार्गों पर तो कई कई सौ किलोमीटर तक पेशाबघर ही नहीं मिलते । भला हो उस अधिकारी का जिसने पेट्रोल पंपों पर शौचालय को ज़रूरी शर्त में शामिल कराया । उन रेस्टोरेंट मालिकों को भी नमन जिन्होंने अपनी बिक्री बढ़ाने को ही सही मगर अपने परिसर में साफ़ सुथरे शौचालय बनवाने पर ज़ोर देना शुरू कर दिया है । कभी कभी तो सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वरी पाठक को सलाम करने का मन करता है जिन्होंने देश में हज़ारों जगह सुलभ शौचालय खुलवा कर एक क्रांतिकारी क़दम उठाया । वैसे यह प्रश्न तो पूछा ही जा सकता है कि सुलभ शौचालय जैसे विचार देश के अन्य लोगों को क्यों नहीं आते ? शौचालय की कमाई खाना इतना बुरा कैसे हो सकता है ? चलिए इसे भी जाने दें मगर यह तो पूछना बनता ही है कि अपने साथ हुए अन्य अपराधों को तो हम बढ़ा चढ़ा कर पेश करते हैं मगर बलात्कार जैसे जघन्य अपराध पर मिट्टी डालने की कोशिश क्यों करते हैं ? वर्जित विषय की हमारी इसी सोच का नतीजा नहीं है क्या कि देश भर में हुईं बलात्कार की तमाम वारदातों में से मात्र एक फ़ीसदी की ही रिपोर्ट दर्ज होती है ?
यह देख कर मन पुलकित हो उठता है कि फ़िल्म इंडस्ट्री अब वर्जित माने जाने वाले विषयों पर फ़िल्में बनाने का साहस कर रही है । देर सवेर समाज में इसका असर भी होगा ही और हमें कभी ना कभी समझ आएगा ही कि खुले समाज का अर्थ सरेआम प्यार का इज़हार करना ही नहीं होता अपितु वर्जित मान लिए जाने वाले विषयों पर स्वतंत्र राय रखना भी होता है । हाल ही में एक ख़बर पढ़ी थी कि दम लगा के हईशा और टॉयलेट एक प्रेम कथा की नायिका भूमि पेडणेकर की मासिक धर्म प्रक्रिया शुरू होने पर उनके पिता ने एक दावत का आयोजन किया था । मुझे लगता है कि खुले समाज का आगाज तो तब ही माना जाना चाहिए जब हमें एसी ख़बरें चौंकाना बंद कर दें ।