रैलियों का हवन और लोग स्वाह
रवि अरोड़ा
हालांकि दबा दी गई मगर ख़बर बड़ी थी । गत रविवार को नवी मुंबई में आयोजित महाराष्ट्र भूषण पुरस्कार कार्यक्रम में लाई गई भीड़ में एक दर्जन लोग गर्मी और निर्जलीकरण से मर गए और दो दर्जन लोगों को गंभीर अवस्था में अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। चूंकि देश के गृह मंत्री अमित शाह इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे अतः सत्ता के लिए नुकसानदेह इस ख़बर का सुर्खियों से गायब होना लाज़मी था । जाहिर है कि इसके चलते यह सवाल भी दब गया कि इतनी भीषण गर्मी में क्यों तो हजारों लोगों को लाया गया और क्यों उन्हें छः से आठ घंटे तक चिलमिलाती धूप में खुले आसमान के नीचे बिठाए रखा गया ? काश यह सवाल देश की प्रमुख खबरों में शुमार होते और शायद इसके बहाने यह सवाल भी हवाओं में गूंजता कि लाखों अखबारों, सैंकड़ों खबरिया चैनल और लगभग हर हाथ में स्मार्ट फोन होने के बावजूद देश में आज भी बाबा आदम जमाने सी ये रैलियां क्यों की जाती हैं ?
बेशक अपना राजनीतिक संदेश आम जन तक पहुंचाने के लिए एक समय में रैलियां प्रभावी उपाय होती थीं मगर आज की सूचना क्रांति के दौर में ही इस महंगी, उबाऊ-थकाऊ और लगभग असरहीन परम्परा को क्यों ढोया जा रहा है ? आज लगभग सभी राजनीतिक दलों के अपने आईटी सेल हैं और हजारों की संख्या में उनमें सिद्धस्त लोग कार्य करते हैं। बात सच हो अथवा झूठ , अब कुछ ही घंटों में उसे पूरे देश में फैलाने में ये लोग माहिर होते हैं। उधर, प्रभावी नेता तो चार लाइन का ट्वीट लिख कर ही पूरे देश से एक ही पल में संवाद कर लेते हैं मगर हैरानी की बात है कि फिर भी ये रैलियां हो रही हैं ? सबको पता है कि रैलियों में भीड़ कैसे लाई जाती है। कम से कम वे लोग तो भली भांति समझते ही हैं जो किसी न किसी लोभ में उसमे लाए जाते हैं । आयोजन सरकार में बैठी पार्टी का हो तो सरकारी बसों और रेलगाड़ियों का दुरुपयोग भी किसी से नहीं छुपता। टैंट और खाने के नाम पर भी करोड़ों रुपए फूंके जाते हैं । यातायात जाम होता है और लाखों लोग बिलावजह हलकान होते हैं मगर फिर भी नतीजा एक ट्वीट जितना भी नहीं निकलता । क्या इस धनबल, कार्यबल और समय का सदुपयोग नहीं किया जा सकता ?
मुझे याद है लगभग चालीस पचास साल पहले चुनावी माहौल में मशाल जलूस निकलते थे । लाउडस्पीकर लगे रिक्शा गली गली घूमते थे । घर घर झंडे टांगे जाते थे और मतदाताओं के बीच थोक के भाव बिल्ले भी बंटते थे । कहना न होगा कि प्रत्याशी भी घर घर जाते थे और व्यक्तिगत रूप से मतदाताओं से मिल कर अपनी बात कहते थे । हां कोई बड़ा नेता आए तब जरूर जनसभा होती थी । बड़ा नेता क्या कहना चाहता है यह इन जनसभाओं से ही पता चलता था मगर अब तो सोशल मीडिया की बदौलत सबको यह भी पता होता है कि उनके मनपसंद नेता ने आज क्या खाया और दिन भर क्या क्या किया, फिर भला भीड़ एकत्र कर ये नेता क्या नई बात बताते हैं ? बेशर्मी देखिए कि कोरोना संकट के दौरान भी देश में ये रैलियां नहीं रुकीं और भारी भीड़ देख कर वह नेता भी गदगद होने लगते थे जो सारा सारा दिन दो गज की दूरी का भाषण हमें पिलाते थे । बात किसी एक नेता और एक दल की नहीं है। देश का पूरा राजनीतिक परिदृश्य ही भीड़ जुटाने के इस दकियानूसी टोटके में अटका नज़र आता है। क्या यह अब जरूरी नहीं हो चला है कि जैसे झंडे, बिल्ले और लाउड स्पीकर का जमाना लद गया , वैसे ही ये रैलियां भी बंद हों। चलिए कोई और कारण न भी स्वीकार किया जाए मगर कम से कम उन परिवारों के बाबत तो अवश्य ही सोचा जाए, आए दिन जिनका कोई अपना इन रैलियों की भेंट चढ़ जाता है।