रीबूटिंग

रवि अरोड़ा

आज फिर कुछ चोटियाँ कट गईं । पता नहीं कटीं भी कि नहीं और यदि कटीं तो किस मुए ने काटीं व क्यों काटीं ? डरी औरतें अब हरी मिर्च बालों में बाँध रही हैं । बचाव में घर के दरवाज़ों पर टोटके किए जा रहे हैं । गली-गली पहरेदारी हो रही है और भोले लोग बाग़ सहमे हुए हैं । बाक़ी कुछ तो मुझे नहीं पता पर इतना ज़रूर पता है कि चोटियाँ छोटे क़स्बों अथवा अविकसित कालोनियाँ में ही कट रही हैं । जिन महिलाओं की चोटियाँ कटीं वह भी अनपढ़ अथवा कम पढ़ी-लिखी हैं । पता नहीं इस चोटी काटने वाले ने पॉश कालोनियों में रहने वाली पढ़ी-लिखी और समृद्ध महिलाओं को अब तक क्यों बक्श रखा है ?

सब की तरह मैं भी हैरान-परेशान हूँ । ऊपर वाला जाने कि यह जहालत कब हमारा पीछा छोड़ेगी । हमारे यहाँ कभी गणेश जी दूध पीने लगते हैं तो कभी मंक़ी मैन आकर लोगों को घायल करने लगता है । ना जाने कितनी हज़ार औरतों को अब तक हम चुड़ैल अथवा डायन समझ कर मौत के घाट उतार चुके हैं । ना जाने कितने हज़ार मासूमों की बलियाँ अब तक हम तांत्रिकों और औझाओं के कहने पर ले चुके हैं । क़सम से दुनिया भर के समाजशास्त्रियों को यदि मूर्खताजन्य ‘मास इलूजन’ यानि सामूहिक भ्रम पर कोई शोध करना हो भारत से बेहतर कोई और जगह हो नहीं सकती । पाँच हज़ार साल से क़िस्से-कहानियों में खोये हम लोग आज भी नित नई कहानियाँ गढ़ने में उतने ही माहिर हैं । ख़ास बात यह कि हमें पता ही नहीं चलता कि अपनी क़िस्सागोई का मुजायरा हम कब अफ़वाहों को खाद-पानी देने में करने लगते हैं ।

लानत है आज के मीडिया पर जो सुबह शाम तिल का ताड़ बना रहा है । सबकी आँख में शर्म का पानी जैसे सूख गया है । मुझे याद है उस्ताद लोगों ने जिस दिन गणेश जी को दूध पिलाया था उसके अगले दिन के सभी अख़बार चीख़ चीख़ लोगों को बता रहे थे कि गणेश जी कोई दूध वूध नहीं पी रहे और यह सब साईफ़न सिद्धांत के तहत हो रहा है । यह हमेशा से होता रहा है और हमेशा ही होता रहेगा । उन दिनो टेलिविज़न का इतना बोलबाला नहीं था मगर जितने भी चैनल थे उन सब ने वैज्ञानिकों को अपने स्टूडियो में बुला कर इस झूठ का पर्दाफ़ाश किया था । मगर कुछ ही सालों में मीडिया के सामाजिक सरोकार जैसे छूमंतर हो गए और तमाम अखबारो और टीवी चैनल ने मंक़ी मैन की कहानियों से अपनी दुकान ख़ूब चमकाई । वह तो भला हो दिल्ली पुलिस का , जिसने अफ़वाह के दिल्ली पहुँचते ही इसे पंचर कर दिया वरना वह मंक़ी मैन अब तक हमारा पीछा कर रहा होता । मगर इस बार तो पूरी बेशर्मी हो रही है और कोई भी बहती गंगा में हाथ धोने में पीछे नहीं रहना चाहता । अख़बार , टीवी और सोशल मीडिया सभी चटकारे ले रहे हैं और शासन-प्रशासन यूँ चुप है कि चलो इस बहाने पब्लिक हमारी ख़ुराफ़ातों पर तो निगाह नहीं डालेगी ।

लखटकिया सवाल है कि क्या हमारा समाज एसी मूर्खताओं के लिए प्रोग्राम्ड है ? क्यों हम बार बार एसी अफ़वाहों के शिकार होते हैं ? क्यों हमारा समाज अदृष्ट खलनायक ढूँढता है ? क्या हमारे समक्ष वास्तविक खलनायकों की कमी है ? भूख , ग़रीबी , बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार जैसे असली दानवों को कब हम अपना खलनायक मानेंगे ? सच कहूँ तो आज हर आदमी के समक्ष यह चुनौती है कि वह अपने आप से पूछे कि कहीं वह प्रोग्रेम्ड तो नहीं है ? हालाँकि क़ुदरत के प्रोग्रैम तो हम में लोड हैं ही मगर क्या सामूहिक भ्रम की प्रवृत्ति भी तो कुछ लोगों द्वारा प्रोग्रैम नहीं कर दी गई ? बेशक इसमें भी कोई दो राय नहीं कि हमारा दिमाग़ बना ही इस तरह से है कि उसे प्रोग्रैम किया जा सके । समाज , धर्म और राजनीतिक विचारधारा हमें अपने अनुरूप प्रोग्रैम करती ही है और हमारी सोच उसी के अनुरूप होती भी है मगर इतनी नज़र रखने की क्षमता भी तो क़ुदरत ने हमें दी है कि हम अपने दुरूपयोग पर नज़र रख सकें और मौक़े बेमौक़े ख़ुद को रीबूट भी कर सकें । क्या आपको भी नहीं लगता कि हमारा समाज अब रीबूटिंग माँग रहा है । रीबूटिंग मतलब रीबूटिंग ।

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