रहस्यमयी कुत्ते
रवि अरोड़ा
कुछ दिनों पहले पूर्व राज्यमंत्री बालेश्वर त्यागी जी पर कुछ आवारा कुत्ते झपट पड़े और वे अपनी स्कूटी से गिर कर घायल हो गए । इस घटना को अपने फ़ेसबुक पेज पर लिखते हुए उन्होंने शहर में बढ़ती आवारा कुत्तों की संख्या पर चिंता भी प्रकट की । चूँकि मैं भी अपने मोहल्ले में कुत्तों की बढ़ती तादाद से परेशान हूँ सो मैंने भी इस पर कमेंट लिख मारा कि पहले हमारे मोहल्ले में कुछ कुत्ते रहा करते थे मगर अब तो लगता है कि मोहल्ला इन कुत्तों का है और इसमें कुछ घर हम इंसानों के भी हैं । यह कमेंट मेरे एक मित्र सुनील प्रूथी जी को नागवार गुज़रा और उन्होंने फ़ोन करके मुझसे पूछा कि क्या कुत्तों को जीने का हक़ नहीं है ? हमारे साथ रहते हैं तो इनकी भूख प्यास की ज़िम्मेदारी हमारी नहीं है क्या ? उनके ये सवाल दिल को छू गए और पिछले कई दिनो से मैं उन्ही सवालों के हवाले हूँ ।
दरअसल मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ कि संसाधनों पर पहला हक़ किसका है , मेरा या मेरे इर्दगिर्द रह रहे कुत्तों , गाय , साँड़ , बंदर , कबूतर , बिल्ली अथवा चिड़ियों का ? ये सभी जीव तो दुनिया में इंसान से पहले आए थे । इंसान तो अभी पाँच करोड़ साल पहले ही इस धरती पर विकसित हुआ है । उसका वर्तमान स्वरूप तो बस एक करोड़ साल पुराना ही है । बाक़ी जीव जगत तो पौने चार सौ करोड़ साल से इस धरती पर रह रहा है । जल , जंगल और पर्यावरण का बँटवारा क़ायदे से हो तो क्या इंसानी हक़ किसी भी सूरत अन्य जीव-जन्तुओं से बड़ा है ? यह ठीक है कि गाँव, नगर व शहर हमने अपने लिए बनाए और बाक़ी जानवरों के लिए जंगल छोड़ दिया है। लेकिन क्या जंगल भी हमने उनके लिए सचमुच छोड़ दिया है ? यह भी सवाल है कि गाय , बैल , घोड़ा , कुत्ता , हाथी और कबूतर इन्हें इंसानी आबादी के निकट कौन लाया और किसने इन्हें पालतू बनाया ? किसने हज़ारों साल तक इनका दोहन किया ? अपने ही समाज में देखें तो हमने अपनी संस्कृति का हिस्सा ही इन्हें क्यों बनाया ? क्यों पहली रोटी गाय की और आख़िरी कुत्ते की निकालने की प्रथा शुरू की ? चिड़ियों को दाना और साँड़ को गुड़ की डली हम क्यों दिए चले जा रहे हैं ? अब यह क्या बात हुई कि जब तक ज़रूरत थी , तब तक हमने इन्हें पालतू रखा और अब जब मशीनें हमने बना लीं तो ये जानवर हमें बोझ लगने लगे ? लेकिन ये बोझ भी कहाँ बोझ बन कर रहना चाहता है । इसने भी तो छीना-झपटी सीख ली है । इस मामले में बंदर सबसे आगे हैं मगर ये कुत्ते , ये तो अभी भी माँग कर खा रहे हैं । दरवाज़े-दरवाज़े जाते हैं और कुछ मिल जाए तो धन्यवाद में जम कर पूँछ हिलाते हैं । हम भी इन्हें केतु का प्रतीक मान कर अथवा शनि को शांत करने की ग़रज़ से कभी कभी बची हुई रोटियों के टुकड़े डाल रहे हैं ।
कुत्तों के प्रति उपजी मेरी सहानुभूति नई नहीं है । उनसे डरने के बावजूद मैं उन पर फ़िदा भी रहता हूँ मगर क्या करूँ उनकी बढ़ती तादाद से यह सहानुभूति धीरे-धीरे क्षीण भी हो रही है । मुझे लगता है कि नगर निगम और तमाम नगरीय व्यवस्थाएँ अपना काम नहीं कर रहीं और कुत्तों समेत सभी आवारा जानवरों की संख्या बढ़ने से रोकने के कोई प्रयास नहीं कर रहीं । फिर सोचता हूँ कि नगर निगम का काम वो जाने , मैं तो अपना काम करूँ । यही सोच कर मैंने आज से अपने घर के बाहर पानी का बड़ा बर्तन रख दिया है । अब क्या करूँ इस रहस्यमयी जानवरों को नाली के गंदे पानी से प्यास बुझाता हुआ भी तो नहीं देखा जाता ।