रब ते बंदा

रवि अरोड़ा

अन्य दिनो की तरह आज भी सुबह उठते ही यूट्यूब पर सूफ़ी कलाम लगा लिया था। एक गायक बुल्ले शाह की काफ़ी गा रहा था- रब बंदे दी जात इक्को , ज्यों कपड़े दी जात है रूं । कपड़े विच ज्यों रूं है लुकया, यूं बंदे विच तू । आपे बोलें आप बुलावे आप करे हूँ हूँ । दिन भर मन में बुल्ले शाह की यह बात चलती रही कि भगवान और आदमी दोनो ठीक वैसे ही एक हैं जैसे कपड़ा और रुई । कपड़े में रुई छुपी रहती है और आदमी में ईश्वर । यह ईश्वर ख़ुद ही हमारे भीतर से सवाल करता है और फिर आप ही उसके जवाब देता है । दोपहर हुई और हवन के एक आयोजन में जाना हुआ । वहाँ पंडित जी ने पूरा एक घंटा कसरत कराई । यहाँ फल रखो और यहाँ मिठाई । आरती की थाल को इस दिशा में इतना घुमाओ और पूर्ण आहूति के समय घी के लोटे को इस प्रकार ऊपर उठाते चले जाओ । हवन के तेज़ घुएँ में बार बार अग्नि में हवन सामग्री डालना भी मुश्किल भरा रहा । हवन से लौटते समय मन में यह सवाल भी मैं ले कर लौटा हूँ कि यदि ईश्वर है तो कैसे कैसे प्रपंच हमसे करवा रहा है और यदि नहीं है तो यह सब क्या तमाशा हम कर रहे हैं और क्यों ?

सयाने कहते हैं कि ईश्वर कौन है इस सवाल का जवाब आप जो भी देंगे वह ग़लत होगा । दरअसल आप वही जवाब देंगे जो आप जानते हैं । यदि किसी रोज़ आप जवाब में वो बतायें जो आप नहीं हैं तो शायद वह सत्य के अधिक निकट होगा । बात जमती भी है । हम अपनी बुद्धिमता के मारे हुए ही तो हैं । हमने तय कर लिया है कि ईश्वर एसा है और उसे एसे राज़ी किया जा सकता है । अति बुद्धिमान तो कहते ही हैं कि इंसानी जगत का सबसे बड़ा अविष्कार ईश्वर ही है । सोचने वाली बात भी है कि पूरी कायनात के मालिक को यदि वह है तो हम अपने दो किलो के दिमाग़ से कैसे जान सकते हैं ? हम तीन आयामों यानि थ्री डायमेन्शन में रहने वाले इंसान उस ईश्वर और उसकी सोच को कैसे समझ सकते हैं जो यदि है तो कम से कम ग्यारह डायमेंशन में तो विचरण करता ही होगा । हमारी औक़ात ही क्या है ? ब्रह्मांड का रेडियस अभी तक 95 अरब प्रकाश वर्ष मापा गया है । प्रकाश की गति से भी अधिक गति से यह फैल रहा है । प्रकाश एक वर्ष में 950 खरब किलोमीटर का सफ़र तय करता है । अंदाज़ा यह भी है कि यूनिवर्स भी अरबों हो सकते हैं और कोई मेघा यूनिवर्स भी है जिसे अरबों यूनिवर्स मिल कर बनाते हैं जैसे अरबों गेलेक्सी मिल कर यूनिवर्स बनाती हैं । अब यह भी नहीं पता कि मेघा यूनिवर्स भी कितने हैं । अब एसे में क्या सचमुच हमारी कोई औक़ात है ?

क़ाबिल लोग बताते हैं कि कायनात न निर्दयी है और न ही दयालु । वह हमारी उपेक्षा नहीं करती मगर हमसे मोह भी नहीं रखती । उसकी यात्रा में हमारी यात्रा एक नैनो सेकेंड जितनी भी नहीं है अतः हम उसके लिए महत्वपूर्ण ही नहीं हैं । हम केवल अपने लिए अथवा अपनो के लिए महत्वपूर्ण हैं और हमारी भूमिका भी यहीं तक सीमित है । इससे इतर जो है वह समाज शास्त्र है अथवा राजनीतिशास्त्र । फिर क्यों हम सब कुछ तय कर लेना चाहते हैं ? क्यों कायनात के सभी फ़ैसले अपने हक़ में चाहते हैं ? हम मान क्यों नहीं लेते कि इस यूनिवर्स की निश्चितता में ही अनिश्चितता निहित है और तमाम अनिश्चितताओं में निश्चितता है । हम कब मरेंगे पता नहीं । अब मरेंगे या तब यह तय नहीं मगर मरेंगे अवश्य यह निश्चित है ।

हवन से लौटते समय तमाम सवालों से जूझते हुए मैं सोच रहा हूँ कि हवन कुण्ड में घी डालते समय यदि मैंने कटोरा लगातार ऊँचा और ऊँचा न किया होता तो क्या सचमुच ईश्वर मुझसे नाराज़ हो जाता ? या केवल पंडित जी की नाराज़गी के भय से हर बार मैं हवन के समय सिर से भी ऊपर तक घी का कटोरा ले जाता हूँ ? पता नहीं आपकी क्या राय है मगर समाजिकता के दबाव में हर बार कोई न कोई कर्मकांड करते हुए मैं तो एसे ही सवालों के हवाले होता हूँ ।

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