ये दिल माँगे थ्रिल

रवि अरोड़ा

लगभग चालीस-पैंतालिस साल पहले मेरी कालोनी में ख़बर आई कि हिंडन नदी में ज़बर्दस्त बाढ़ आई है और पानी घंटाघर तक आ गया है । यह भी सुना कि घंटाघर पर साँप चढ़ रहे हैं व बजरिया में मचलियाँ तैर रही हैं । अब किशोर उम्र की मेरी मित्र मंडली का दिल यह नज़ारा देखने को मचल उठा और हम लोग घर वालों को बिना बताये ही पैदल घंटाघर तक पहुँच गये । मगर वहाँ पहुँच कर बड़ी निराशा हुई कि एसा कुछ भी उधर नहीं था । बेशक नदी में बाढ़ आ गई थी मगर पानी केवल पटेल नगर के निचले इलाक़े में ही भरा था । रोमांच , उत्तेजना, सनसनी या यूँ कहिये कि थ्रिल की चाह में की गईं हमारी पूरी मशक़्क़त बेकार हो गई । अब आप कहेंगे कि हम लोग अच्छे शहरी कदापि नहीं थे वरना पानी घंटाघर तक नहीं आया देख कर और वहाँ सांप-मचलियाँ तैरती हुई न पाकर राहत महसूस कर रहे होते । आप बिलकुल ठीक कहते हैं । हमें अनिष्ट में थ्रिल नहीं खोजना चाहिये था और हमारा नज़रिये का केंद्र लोगों का सुख-दुःख ही होना चाहिये था । ख़ैर , उदास-निराश हम लोग वापिस घर लौटे तो मोहल्ले में बड़े-बूढ़ों में चर्चा थी कि बाढ़ को लेकर तरह तरह की अफ़वाहें उड़ रही हैं और हमें उन पर ध्यान नहीं देना चाहिये । जीवन में पहली बार अफ़वाह शब्द उन दिनो ही सुना था और वे दिन हैं और आज का दौर है , अफ़वाहों से दामन अभी अछूता नहीं रख पाया ।

उन्ही दिनो अंग्रेज़ी के शिक्षक ने मास इलूज़न यानि बड़े पैमाने पर भ्रम शब्द की क्लास में व्याख्या की । इस शब्द को साक्षात जीया सन 2001 में जब पूरे शहर में काला बंदर अथवा मंकी मैन की अफ़वाह उड़ी हुई थी । कभी भी कहीं भी अचानक भीड़ दौड़ पड़ती कि पीछे मंकी मैन आ रहा है । अफ़वाह और भ्रम ने मिल जुल कर एसा जाल रचा कि कोई छत से कूद रहा है तो कोई सड़कों पर गिर रहा है । शाम होते ही लोग-बाग़ अपने अपने घरों में घुस जाते । हालाँकि इससे पहले गणेश जी दूध पी चुके थे मगर उनके जुड़ी अफ़वाह मात्र एक दिनी थी मगर मंकी मैन महीने भर एनसीआर के मानस पटल पर क़ब्ज़ा किये रहा । बेशक मनोवैज्ञानिक इसे मास इलूजन जैसा ख़ूबसूरत शब्द दें मगर मुँह नोंचवा के आतंक , समुंदर के पानी के मीठे हो जाने और देश में अचानक नमक ख़त्म हो जाने जैसी तमाम एसी अफ़वाहें हमारे दौर में जन्म ले चुकी हैं , जिसे पूरे समाज के एक साथ पागल हो जाने से कम कहने हो जी नहीं चाहता । अब एक नया ही तमाशा शुरू हो चुका है । कहीं भी अचानक एक भीड़ एकत्र होती है और किसी को भी बच्चा चोरी करने वाला बता कर लहूलुहान कर देती है । गली-गली शहर-शहर एसी वारदातें हो रही हैं । उत्तर प्रदेश का तो शायद ही कोई जिला बचा हो जहाँ पिछले दो महीने में एसी कोई वारदात न हुई हो ।आलम यह है कि आप चाह कर भी किसी अनजान प्यारे से बच्चे को अब पुचकार नहीं सकते । मानवीय संवेदनाओं का हवाला देकर किसी रोते बच्चे को चुप नहीं करा सकते । यदि आप एसा करते हैं तो यक़ीनन अपनी जान के दुश्मन हो जाते हैं ।

एक बात समझ नहीं आती । हम लोग शुरू से ही इतने बावले थे या अब एसे हुए हैं ? हालाँकि अपने मूर्खतापूर्ण रीति-रिवाजों और जहालत भरी परम्पराओं को देख कर तो अपने समाज की समझ पर शुरू से ही शक होता था मगर आज तकनीक, वैज्ञानिकता और इंटरनेट के ज़माने में भी हमारी बेहूदगियाँ कम क्यों नहीं हों रहीं ? वट्सएप, फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे माध्यम जो ज्ञान बाँट सकते हैं , वही अफ़वाहें फैलाने के सबसे बड़े औज़ार कैसे बने हुए हैं ? उधर, अंतराष्ट्रीय स्तर पर हुए सर्वे बताते हैं कि अफ़वाहों के बाज़ार में हम भारतीय 54 अंक पाकर सबसे आगे हैं और 64 फ़ीसदी भारतीय अफ़वाहों के शिकार होते हैं । किशोर सबसे ज़्यादा प्रभावी होते हैं । बेशक तमाम देशों में अफ़वाह फैलाने और इंटरनेट पर झूठी ख़बरें प्रसारित करने के ख़िलाफ़ सख़्त क़ानून हैं मगर इस मामले में हम सबसे फिसड्डी हैं और हमारे यहाँ न तो सख़्त क़ानून हैं और न ही उनका पालन हो रहा है । एक बात बताइये कहीं एसा तो नहीं कि इन अफ़वाहों में हम थ्रिल ढूँढते हों ? ठीक वैसे ही जैसे मैं घंटाघर पर सांप ढूँढ रहा था ? भीड़ द्वारा किसी को पीटे जाने पर अपने हाथ साफ़ कर हम थ्रिल की अपनी इसी चाह पूरी करने लगते हैं ? यदि एसा ही है तो शासन-प्रशासन क्या कर रहा है ? उसने हर जिले में ऊँची ऊँची दीवारें चिनवा कर जेल किसके लिए बनवाई हैं ? थ्रिल की ज़रूरत का जेल से बढ़िया इलाज क्या है ? चलिये मेरी छोड़िये और अब आप बताइये , क्या आपका दिल भी थ्रिल माँगता है ?

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