यह आचरण क्या कहलाता है !

रवि अरोड़ा
रविवार के तमाम अखबारों में तीन ऐसी प्रमुख खबरें थीं जो एक साथ पढ़े जाने की मांग करती हैं । पहली यह कि महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले में हुए एक भीषण सड़क हादसे में पच्चीस लोग जिंदा जल गए । दुर्घटना से बस में लगी आग में फंसे लोग मदद के लिए चिल्लाते रहे मगर उनकी सहायता को राजमार्ग पर एक भी गाड़ी नहीं रुकी। दूसरी खबर यह थी कि दिल्ली कैंट में सरेआम एक युवक की चाकुओं से गोद कर हत्या कर दी गई और मदद करने की बजाय आसपास खड़े लोग वारदात की वीडियो बनाते रहे । उधर, तीसरी खास खबर के अनुसार दिल्ली यमुना पार की वेलकम कॉलोनी में एक मंदिर के पास भैंस का कटा सिर मिला , जिससे इलाके में तनाव फैल गया । गुस्साए लोगों को काबू करने और क्षेत्र में शांति स्थापित करने को भारी तादाद में पुलिस बल को मौके पर बुलाना पड़ा। अब आप पूछ सकते हैं कि पहली दो खबरों में तो एक खास किस्म की एकरूपता है मगर तीसरी खबर को उनके साथ पढ़े जाने का भला क्या औचित्य है ? तो जनाब उसके जवाब में आपसे भी यह सवाल पूछा जा सकता है कि भैंस के कटे सिर को देखकर उद्वेलित होने वाले हम लोग किसी इंसान की हत्या को देखकर क्यों आक्रोशित नहीं होते ? जानवर का कटा सिर हमें दया ममता से भर देता है मगर कीड़े मकौड़ों की तरह जल जल कर मर रहे लोग हमारी दया ममता को क्यों नहीं जागृत कर पाते ?

बेशक हजारों सालों का मानव इतिहास विसंतियों से भरा है मगर अब यह किस किस्म की विसंगति उत्पन्न हो गई है कि हमारा सारा आक्रोश केवल धार्मिक मामलों तक ही सीमित हो चला है और आसपास के लोगों का सुख दुःख हमें उदासीन ही बनाए रखता है ? प्रेम, करुणा, दया और ममता जैसी कोमल इंसानी भावनाएं धीरे धीरे किताबी क्यों होती जा रही हैं और हम ‘ सानू की ‘ जैसी ग्रंथियों के शिकार हो रहे हैं ? पश्चिम के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अकेले होने पर हमें फिर भी अपनी जिम्मेदारी का अहसास होता है और हम पीड़ित के सहयोग को आगे भी आते हैं मगर भीड़ के बीच हम बाई स्टैंडर इफेक्ट यानी ‘ दर्शक प्रभाव ‘ में होते हैं। विदेशों में हुए अनेक सर्वे भी दर्शक प्रभाव की तस्दीक करते हैं मगर यह भी तो पश्चिमी का मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है कि धार्मिक मान्यताएं ही तय करती हैं कि हम कितने दयालु और परोपकारी होंगे ? इस लिहाज से तो हम भारतीयों पर दर्शक प्रभाव लागू नहीं होना चाहिए । मुल्क की तीन चौथाई आबादी जो स्वयं को हिन्दू कहती है और हिन्दू धर्म की तो तमाम मान्यताओं के केन्द्र में ‘ सर्वे भवन्तु सुखिनः ‘ का भाव ही है, फिर यह क्या हो रहा है कि हम ‘ मम भवन्तु सुखिनः ‘ से ही बाहर नही आ रहे ? माना चहूं ओर अंधी दौड़ है और हरेक के लिए उसका निजी एजेंडा ही महत्वपूर्ण है तथा ऐसे में हम अपनी कोमल भावनाएं खोते जा रहे हैं मगर हमारा धार्मिक आचरण फिर इसके विपरीत क्यों है ? धर्म के मामले में तो हम ऐसा नहीं करते ? कमाल है, धर्म के मूल भाव तो हमने त्याग दिए और धर्म के दिखावे का डोज बढ़ा दिया । आदमी मरा तो हमने आंख बंद कर ली और मंदिर के पास जानवर मरा तो हमारा धार्मिक भावना को ठेस लग गई । । मुआफ कीजिएगा साहब, यह हमारा धार्मिक आचरण नहीं पाखंडी आचरण कहलायेगा ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

RELATED POST

बात निकलेगी तो…

रवि अरोड़ाकई साल पहले अजमेर शरीफ यानी मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जाना हुआ था । पूरा बाजार हिंदुओं की…

नायकों के चुनाव की भूल भुलैया

रवि अरोड़ाइस बार दीपावली रणथंबोर नेशनल पार्क में मनाई। जाहिरा तौर पर तो खुले जंगल में बाघों को विचरण करते…

सिर्फ बोल गंगा मैया की जय

रवि अरोड़ागुरुवार का दिन था और मैं हापुड़ की ओर जा रहा था । छिज़ारसी टोल प्लाज़ा पर गाड़ियों की…

योर बॉडी माई चॉइस का नया संस्करण

रवि अरोड़ाबेशक उत्तर प्रदेश और अमेरिका में किसी किस्म की कोई समानता नहीं है मगर हाल ही में दोनों जगह…