मोरे सिर से टली बला
रवि अरोड़ा
आठवें दशक के शुरुआती साल थे जब मैं पत्रकारिता के क्षेत्र में हाथ पांव मारने लगा । साल 1990 से तो पूरी तरह इस फील्ड में रम गया । यह वह दौर था जब पत्रकारों की समाज में बड़ी धमक थी। किसी कार्यक्रम में पहुंच जाओ तो लोग बाग स्वागत में खड़े हो जाते थे और बेशक किसी बड़े नेता के लिए न छोड़ें मगर पत्रकार के लिए अपनी कुर्सी खाली कर देते थे । अधिकारी अपनी ख़बर छपवाने के लिए चिरौरी करते थे और माफिया डरते थे कि कहीं ये मेरे पीछे न पड़ जाए। संचार के माध्यम के नाम पर केवल टेलीफोन था और वह भी किसी किसी के पास । कंप्यूटर थे नहीं, इंटरनेट की कल्पना भी शायद तब तक नहीं हुई थी और सोशल मीडिया जैसे शब्दों का जन्म भी तब तक नहीं हुआ था । खबरें कागज़ कलम से लिखी जाती थीं और सूचनाओं के लिए थाने-थाने दफ्तर-दफ्तर की खाक पत्रकार छानते थे । शायद यही वजह थी कि समाज के हर तबके में पत्रकारों की पहुंच थी और अपने क्षेत्र के चप्पे चप्पे से वे वाकिफ होते थे । बेशक राजनीतिक दबाव उस दौर में भी था मगर इसका पता केवल अखबार के संपादकीय से ही चलता था और खबरें दबावों से कमोवेश अछूती ही रहती थीं। चूंकि इस दौर में खबरिया चैनल भी नहीं थे अतः टीआरपी जैसे शब्द भी किसी ने नहीं सुने थे । वेतन कम था मगर सम्मान इतना था कि ख़बरनवीसों का जीवन बढ़िया कट जाता था । अब आप पूछ सकते हैं कि आज उस पुराने दौर में तांका झांकी क्यों ? तो जनाब गैंगस्टर अतीक अहमद को साबरमती जेल से प्रयागराज लाए जाने के दौरान खबरों के नाम पर जो नंगा नाच देश में हुआ है उसे देख कर भला किस कलमकार को वह दौर याद नहीं आएगा ? कैसे दिमाग उस दौर से तुलनात्मक अध्ययन नहीं करेगा कि आज जब पत्रकारों के पास सब है फिर भी उन्हें वह सम्मान अब क्यों नहीं मिलता ?
पूरी दुनिया ने देखा कि अतीक के पेशाब करने को राष्ट्रीय ख़बर बना देने के जतन में देश का मीडिया अनेक बड़ी और सच्ची ख़बरें आसानी से पी गया । दिल्ली का मुख्यमंत्री अपनी विधानसभा में देश के प्रधानमन्त्री को सबसे बड़ा भ्रष्ट बता रहा था मगर उसकी ख़बर जैसे अतीक के पायजाने के नाड़े में उलझ गई। आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे भाजपा नेता जो नौ साल से किसी सदन के सदस्य नहीं हैं, उनके बंगला खाली न करा कर राहुल गांधी का ही घर क्यों खाली कराया गया, यह जानने की बजाय अतीक की भाव भंगिमाओं को तवज्जो देना मीडिया ने अधिक जरूरी समझा । हिंडनबर्ग और अडानी के तमाम घोटाले तो मीडिया के लिए कभी खबर थे ही नहीं । विपक्ष काले कपड़े पहन कर सड़कों पर है और जेपीसी की मांग को लेकर देश की संसद ठप है मगर इसे खबर न मान कर अतीक की गाड़ी पलटने की आशंका को ही इस देश के मीडिया ने बड़ी खबर समझा । समझ नहीं आ रहा है कि अगर यही पत्रकरिता है तो फिर सत्ता का पिछवाड़ा धोना भला और क्या होगा ?
बेशक थोड़ा बहुत लिखना पढ़ना अभी भी जारी है मगर पिछले एक दशक से मैं पत्रकारिता की मुख्यधारा से दूर ही हूं। शुरू शुरू में लगता था कि उस रोमांचक दुनिया में फिर लौट जाऊं मगर जब से देश की पत्रकरिता ने यह तय कर लिया है कि आदमी को कुत्ता काटे इसकी बजाय कुत्ते को आदमी के काटने को ही खबर मानना है, मेरी यह इच्छा पूरी तरह मर गई है। अब आप ही बताइए, उस दौर की सार्थक पत्रकारिता को देखने के बाद भला अब कोई कैसे यह गंदगी उठा सकता है ? सच कहूं तो पहले वो लोग बुरे लगते थे जिनके कारण यह क्षेत्र छोड़ा मगर अब तो उनका एहसान मानते को ही जी चाहता है। धन्य हैं कबीर जिन्होंने समय रहते यह समझाया- भला हुआ मोरी गगरी फूटी, मैं पनिया भरन से छूटी, मोरे सिर से टली बला।