मूर्तियों का फेर
रवि अरोड़ा
काम पर जाते हुए लगभग रोज़ ही डायमंड फ्लाई ओवर से गुजरना होता है। लगभग आठ साल पहले इस फ्लाईओवर का नामकरण हुआ था- वीर सावरकर सेतु। तत्कालीन महापौर तेलूराम कांबोज और समाजसेवी हरविलास गुप्ता जी के सौजन्य से यहां सड़क के बीचों बीच विनायक दामोदर सावरकर की मूर्ति भी तब लगाई गई थी। जिस समय इस मूर्ति का अनावरण हुआ, इत्तेफाक से मैं वहां मौजूद था । हाल ही में स्वर्गीय गुप्ता जी के पुत्रों और कुछ अन्य लोगों के सहयोग से इस क्षेत्र का पुनः सौंदर्यीकरण किया गया । चूंकि सावरकर की मूर्ति पुरानी हो चुकी थी अतः उनके भक्तों को लगा कि जब इतना खर्च कर रहे हैं तो क्यों न मूर्ति भी नई लगा दी जाए, सो जतन कर सावरकर की नई मूर्ति भी वहां स्थापित कर दी गई। लेकिन अब पुरानी मूर्ति का क्या किया जायेगा, यह किसी के दिमाग में नहीं आया । अतः पोडियम से उसे उतार कर नई मूर्ति के निकट जमीन पर उसे रख दिया गया । सौंदर्यीकरण के इस काम का बकायदा उद्घाटन हुआ और एक डेढ़ दर्जन नामों से सुसज्जित एक भव्य पत्थर भी वहां स्थापित कर दिया गया । महीनों पहले हुए इस आयोजन के बाद सभी सावरकर भक्त अपने अपने घर चले गए और सावरकर की पुरानी मूर्ति आज भी वहां जमीन पर पड़ी अपने उद्धार का इंतज़ार कर रही है। अब यह कोई तस्वीर तो थी नहीं कि आयोजक उसे अपने घर ले जाते । भला किसके घर में इतनी जगह है कि वहां इतनी बड़ी मूर्ति रखी जा सके ? चलो जैसे तैसे कोई ले भी जाए मगर क्या आसान है इस मूर्ति की सेवा करना ? जन्मदिन और निर्वाण ही नहीं पचास ऐसे और मौके साल भर में आयेंगे जब सावरकर की मूर्ति का उचित सम्मान करना पड़ेगा और यदि कहीं कोई कमी रह गई तो दूसरे सावरकर प्रेमियों की चार बात उल्टे सुननी पड़ेंगी। नतीजा वह मूर्ति है जिसके गले में सैंकड़ों हार डलने का मै गवाह हूं, आज कुदरत के धीमे मगर शर्तिया इंतजाम के हवाले जमीन पर पड़ी हुई है।
बात सावरकर और उसके भक्तों की नहीं है। कथित समाजसेवियों और इन उद्घाटनप्रेमियों की भी नहीं है। बात है उन तमाम मूर्तियों की जिन्हे शौक शौक में नेता लोग सार्वजनिक स्थानों पर लगा तो देते हैं मगर बाद में उनका क्या हश्र होता है, मुड़ कर यह नहीं देखते। पूरा शहर भरा पड़ा है इन मूर्तियों से । पक्षी उन्हें गंदा न करें, यह सोच कर किसी मूर्ति को शीशे के बक्सों में कैद कर दिया गया तो किसी किसी पर स्थाई छतरी सी बना दी गई । मगर मूर्ति तो बेचारी मूर्ति है और अपनी हिफाज़त खुद नहीं कर सकती अतः वही हाल होता है जो किसी भी बेजान शय का होता है। स्वतंत्रता सेनानियों और बड़े बड़े नेताओं की मूर्तियों के हिस्से तो साल में दो बार फूल माला आ भी जाती है मगर उन गुमनाम नायकों का तो कोई नामलेवा भी नहीं मिलता जिनकी मूर्तियां कभी जोश जोश में लगा तो दी गईं थीं मगर अब उनके चाहने वाले भी दुनिया से रुखसत हो गए। अपने शहर की क्यों बात करूं, पूरे मुल्क का यही हाल है। हर राज्य, हर शहर और हर कस्बा अटा पड़ा है इन मूर्तियों से। कुछ मूर्तियां जातीय दंभ तो कुछ साम्प्रदायिक उन्माद को लगाई जाती हैं। कई कई तो दंगा कराने के लिए भी बदनाम हैं। गाहे बगाहे उनका अपमान अथवा उन्हें खंडित कर क्षेत्र की फिज़ा खराब कर ही दी जाती है। उधर, सरकारें भी लोगों की सेवा करने के बजाय उनकी जाति अथवा धर्म के किसी महापुरुष की मूर्ति लगाने का शॉर्ट कट अपनाती हैं। क्या ही अच्छा हो कि सार्वजानिक स्थानों पर मूर्तियां लगाने वालों का बकायदा रजिस्ट्रेशन हो और मूर्ति की साफ सफाई, देखभाल और हिफाजत की शर्त के साथ ही उन्हें इसकी अनुमति दी जाए । वैसे क्या ही अच्छा हो यदि हम दिवंगत व्यक्ति के आदर्शों को अपनाएं और इन मूर्तियों के फेर में न ही पड़ें।