मूर्खों की टोली
रवि अरोड़ा
सुबह का वक़्त है । ब्लूटुथ पर फैय्याज हाशमी की नज़्म ‘ आज जाने की ज़िद न करो ‘ सुन रहा हूँ । यूट्यूब पर देख रहा हूँ कि यह नज़्म बेशक गायिका फ़रीदा खानम के वजह से दुनिया भर में लोकप्रिय हुई हो मगर ब्रिटिश सिंगर तान्या वेल्स की आवाज़ में भी यह बहुत पसंद की जा रही है । तान्या का बैंड सेवन आइज जो दुनिया के सबसे मशहूर म्यूज़िक ग़्रुप में से एक है , उसने हिंदी के अनेक अन्य गीत जैसे ‘ ओ रे पिया ‘ व ‘ मैं जीयो ‘ भी ख़ूब चर्चित हुए हैं । यूट्यूब पर उनके लाखों फालोअर्स हैं और उन्हें लाइव सुनने भी हज़ारों की भीड़ उमड़ पड़ती है । लोगबाग़ हैरानी मिश्रित ख़ुशी से भर जाते हैं अंग्रेज़ों को हिंदी-उर्दू में गाते देखकर । शायद उस समय उन्हें अपनी भाषा पर गर्व होता होगा । अपने देश के शिष्टमंडल के साथ आये किसी जापानी दुभाषिये को हिंदी बोलता देख कर तो मैं भी बहुत ख़ुश होता हूँ । एसी ही ख़ुशी टोम अल्टर जैसे ब्रिटिश मूल के किसी अभिनेता को हिंदी बोलते अथवा इस्कान मंदिर में विदेशियों को हरे रामा हरे कृष्णा की धुन पर झूमते हुए देख कर भी होती है । एसे हरेक मौक़े पर हमें फक्र होता है लेकिन समझ नहीं आता कि जब कोई मुस्लिम संस्कृत पढ़े अथवा पढ़ाये तो हमें क्यों मौत आती है ? सच स्वीकारें तो साफ़ दिखता है कि बनारस हिंदू विश्वविध्यालय के संस्कृत विभाग में डाक्टर फ़िरोज़ खान की नियुक्ति के विरोध का ताज़ा मामला भाषा का नहीं वरन सरासर सांप्रदयिकता का है । और साम्प्रदायिकता से उसी तरह से निपटना चाहिये जैसा हमारा संविधान कहता है । मोहब्बत की ज़रा भी गुंजाइश नहीं । आप ही बताइये कि संस्कृत के नाम पर हमारी मिली जुली संस्कृति से छेड़छाड़ को क्या क्षमा नहीं किया जाना चाहिये ?
जयपुर के बगान क़स्बे के मूल निवासी डाक्टर फ़िरोज़ खान के बाबत जानकारी करने बैठता हूँ तो अपनी इस बहुरंगी संस्कृति और उसी से जन्मी भारतीयता पर गर्व होता है ।डाक्टर फ़िरोज़ और उनके तीनो भाई संस्कृत के छात्र रहे हैं । संस्कृत में पीएचडी करके फ़िरोज़ सबसे आगे निकल गये और शिक्षा विभाग द्वारा बेस्ट टीचर का अवार्ड भी हासिल कर चुके हैं । राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने स्वयं उन्हें सम्मानित किया था । फ़िरोज़ के पिता रमज़ान खान गौसेवक हैं और मंदिरों में कृष्ण भक्ति के गीत गाते हैं । फ़िरोज़ के दादा गफ़ूर खान के ज़माने से परिवार में यह परम्परा चली आ रही है । गौसेवा, मस्जिद से पहले रोज़ाना मंदिर जाने और अपने संस्कृत प्रेम के कारण दशकों तक यह परिवार बिरादरी बाहर होने का दंश भी झेल चुका है । हिंदू नाम वाली छोटी बहनें लक्ष्मी और अनीता भी छोटी सोच वालों के बीच तंज का शिकार होती हैं । बावजूद इसके साझी संस्कृति की बयार फ़िरोज़ के परिवार में ही नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र में निर्बाध बह रही है । इसकी मिसाल है जयपुर का राजकीय शेखावत संस्कृत विद्यालय है जहाँ अस्सी फ़ीसदी छात्र मुस्लिम ही हैं । अकेले जयपुर की ही बात क्यों करें , देश भर के संस्कृत विद्यालयों में मुस्लिम छात्रों की भरमार है । देश में एसे मुस्लिम विद्वानों की भी कमी नहीं है जिन्होंने अपने संस्कृत प्रेम के चलते ही अपार ख्याति पाई । मिर्ज़ापुर निवासी संस्कृत की शिक्षिका नाहिद आबिदा को तो इसी के चलते पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया । संस्कृत के विद्वान हयातुल्ला को चतुर्वेदी की उपाधि , मेरठ के शाहीन जमाली का स्वयं को मौलाना के साथ चतुर्वेदी लिखना और मुम्बई के ग़ुलाम दस्तगीर की पंडित जी के नाम से प्रसिद्धी संस्कृत प्रेम के कारण ही तो है ।
इसे ज़हालत नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे कि हमने युगों तक संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा को देवताओं की भाषा कह कर सामान्य जन से दूर रखा और जैसे तैसे अंग्रेज़ों , जर्मनों और मुस्लिम विद्वानों ने दुनिया के सामने इसे रखा और अब हम इसे एक धर्म की भाषा बनाने पर उतर आये हैं । विद्वान कहते हैं कि अंग्रेज़ी और जर्मनी जैसी अनेक विदेशी भाषाएँ भी संस्कृत से उपजीं हैं और हम हैं कि उसे फिर छोटे दायरे में ले जाने पर तुले हैं । पता नहीं कोई इन मूर्खों की टोली को यह क्यों नहीं कहता कि भाई क़ाबलियत है तुम भी जाओ और मदरसे में पढ़कर उर्दू टीचर बनो । मुस्लिमों को ही नीचा दिखाना है तो कथित तौर पर उनकी भाषा उर्दू पर क़ब्ज़ा करो । ख़ैर अपनी चिंता तो यह है कि चंद मूर्खों की इस हरकत से वे कट्टरपंथी मुस्लिम सही साबित हो जाएँगे जो फ़िरोज़ और उसके भाइयों के संस्कृत पढ़ने का विरोध करते थे ? अरे ओ मूर्खों कम से कम यह तो देख लेते कि राम मंदिर के सर्वोच्य फ़ैसले पर देश ने कितनी परिपक्वता दिखाई । क्या बिलकुल ही गधे हो और अपनी संस्कृति को ज़रा सा भी नहीं समझते ?