मुड़ के खोती बूढ़ थल्ले

रवि अरोड़ा
लीजिए भारतीय राजनीति की गदहिया एक बार फिर घने बरगद के नीचे जाकर खड़ी होने की जुगत में लग गई है । हर बार ऐसा ही तो होता है । जब जब जनता इस गधी को अपने जरूरी मुद्दों की ओर खींचने की कोशिश करती है, राजनीतिक दलों की बेसुरी हांक उसे फिर अपने प्रिय बरगद के नीचे जाने पर मजबूर कर देती है। इसी बेसुरी हांक से एक बार फिर साल 1989 की तरह मंडल कमंडल जैसा खेला होता दिख रहा है। पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ , फिर केंद्रीय कपड़ा मंत्री और बिहार के बड़े फायर ब्रांड भाजपाई नेता गिरिराज सिंह और अब आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले भी वही राग अलाप रहे हैं- हिन्दू बंटेगा तो कटेगा । हिंदू को कौन बांट रहा है और किससे कटने का खतरा उसे बताया जा रहा है, यह समझना भी कोई पहेली है क्या ? विगत लोकसभा चुनावों में जिस प्रकार विपक्षी दलों ने अपने जातिगत कार्ड से खासतौर पर उत्तर प्रदेश में भाजपा के दांत खट्टे किए उससे भाजपा और उसके तमाम सहयोगी संगठन पुनः अपने प्रिय धार्मिक ध्रुवीकरण की ओर लौटने को मजबूर हैं। उत्तर प्रदेश के उपचुनाव और महाराष्ट्र व झारखंड के विधानसभा चुनाव इस नीति की प्रयोगशाला अब बनने जा रहे हैं। नतीजा बार बार दोहराया जा रहा है कि बंटेंगे तो कटेंगे। भाजपा का बीज मंत्र बने इस डायलॉग पर गीत लिखे जा रहे हैं और वीडियो बन रहे हैं। यही नहीं मुंबई की सड़कों पर इसे नारा बना कर होर्डिग तक लगाए जा रहे हैं। बिसात बिछ चुकी है और अब इन चुनावों के परिणाम से पूरी तरह साफ हो जाएगा भारतीय राजनीति की गदहिया चौड़े राजमार्ग पर चलना चाहेगी या फिर अपने प्रिय बरगद के नीचे ही धूल में लौट लगाएगी।
मथुरा में सम्पन्न हुई आरएसएस की महत्वपूर्ण बैठक के बाद होसबोले के आए बयान और उससे पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत से योगी आदित्यनाथ की लंबी मंत्रणा को विगत और आगामी चुनावों से इतर देखने की कोई वजह नहीं ढूंढी जा सकती। आरएसएस का मुख्यालय महाराष्ट्र के नागपुर में ही है अतः वहां की राजनीति को वे अपने प्रभाव से मुक्त देखना भी भला क्यों चाहेगी । शायद यही कारण है कि बंटने और कटने के नारे से महाराष्ट्र को गूंजता देखने के प्रयास किए जा रहे हैं। बताया जा रहा है कि महाराष्ट्र की चुनावी सभाओं में मोदी से अधिक मांग योगी की हो रही है और शायद इसी बहाने योगी ब्रांड की राजनीति को विस्तार देने का प्रयास भी संघ द्वारा किया जा रहा है। हाल ही में हरियाणा विधानसभा चुनावों में विजय से आरएसएस का मनोबल बेहद ऊंचा है ही । बंद कमरे की बैठकों में स्वयं भाजपा के नेता भी स्वीकार कर रहे हैं कि संघ मोर्चा नहीं संभालता तो हरियाणा हाथ से लगभग फिसल चुका था । चूंकि हरियाणा में मुस्लिम मात्र सात फीसदी हैं और वह भी मेवात जैसे एक क्षेत्र तक ही सीमित हैं अतः बेशक आरएसएस ने धार्मिक ध्रुवीकरण का कार्ड वहां नहीं खेला मगर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और झारखंड में तो इसके बिना उसका गुजारा भला कैसे होगा सो एक बार फिर नारा बदल कर हिंदू-मुस्लिम करने की तैयारी है।
हिंदुत्व की राजनीति करने वाली भाजपा और संघ की यही दिक्कत है कि 79 फीसदी हिंदू जातियों के नाम पर बंटे हुए हैं और इसी के चलते क्षेत्रीय दल भाजपा के वोटबैंक में सेंध लगा देते हैं। लोकसभा चुनावों में सपा का पीडीए फार्मूला इसी का उदाहरण था । हालांकि भाजपा भी जाति की राजनीति भरपूर करती है और अपना एक एक कदम इसी के मद्देनजर उठाती है मगर उसकी दुकान का प्रमुख सामान तो हिंदुत्व ही है और उसी को चलता हुआ वह देखना भी चाहती है। यही कारण है कि अपने वोटबैंक को एकजुट रखने के लिए हर बार उसे डराना पड़ता है। डराने के उसकी पुरानी शराब इस बार नई बोतल में बाजार में आई है और इसी बोतल का नाम है बंटेंगे तो कटेंगे। मगर अपनी नजर में तो यह गदहिया का वापिस बरगद के नीचे लौटना ही है।

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