मुंह किधर है
रवि अरोड़ा
आज सुबह व्हाट्स एप पर किसी ने मैसेज भेजा कि हिंदुओं बाबा का ढाबा तो तुमने प्रचार करके चला दिया । बंद हो रही गीता प्रेस के लिए ऐसा कुछ क्यों नहीं करते ? याद आया कि साल भर पहले भी गीता प्रेस संबंधी ऐसे मैसेज खूब आए थे और फिर अचानक बंद भी हो गए । अर्से बाद फिर इन्हें शुरू किया गया है । अब ऐसे मैसेज कौन शुरू करता है और क्यों करता है , यह तो मुझे नही पता मगर इतना जरूर पता है कि कम से कम अभी कुछ दशक तक तो गीता प्रेस जैसी किसी संस्था को कोई खतरा नही है । आगे की ऊपर वाला जाने ।
बचपन में जब कभी रेलगाड़ी का सफर करने का मौका मिलता और ट्रेन के आने में अभी समय होता तो समय काटने के लिए बुक स्टॉल से बेहतर कोई जगह नहीं दिखती थी । तब भी सैंकड़ों किताबों के बीच गीता प्रेस की हिंदू दर्शन संबंधी किताबें दूर से ही नजर आती थीं । लोगों की रुचि कहिए अथवा इन किताबों की सस्ती कीमत , ये बिकती भी खूब थीं । बाद में भारतीय दर्शन में गहरी रुचि होने के कारण मैं भी गीता प्रेस की किताबें खरीदने लगा । यही नहीं एक बार गोरखपुर गया तो गीता प्रेस के परिसर में चक्कर भी लगा आया । जानकर हैरानी हुई थी कि गीता प्रेस लागत से भी आधी कीमत पर अपनी किताबें बेचती है और बावजूद इसके अब तक साठ करोड़ से अधिक किताबें बेच भी चुकी है । इनमें अकेले गीता की ही बारह करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं । आज भी यह प्रेस पचास हजार से अधिक किताबें रोज़ाना छापती है । वहां जाकर ही पता चला था कि सन 1923 में राजस्थान के एक सेठ जय दयाल गोयन्दका ने इसे शुरू किया था और यह प्रेस उन्हीं की नीति के अनुरूप न तो कोई विज्ञापन लेती है और वहां न ही कोई अनुदान स्वीकार किया जाता है । किताबों की छपाई में हुए नुकसान की भरपाई यह प्रेस अपने औषधालय और कपड़े के व्यापार से पूरा करती है । गीता प्रेस की किताबें पन्द्रह भाषाओं में छपती हैं और इसकी पत्रिका कल्याण के वार्षिक ग्राहक भी ढाई लाख से अधिक हैं । रोचक तथ्य यह है कि पिछली बार जब गीता प्रेस के बंद होने के समाचार सोशल मीडिया पर छाए तो खैरख्वाह लोगों ने बिना मांगे ही प्रेस के बैंक खाते में रुपए ट्रांसफर करने शुरू कर दिए । चूंकि अनुदान लेने की पॉलिसी गीता प्रेस की नहीं है अतः उसने तंग आकर एलान किया कि कृपया हमें पैसे न भेंजे । लोग बाग फिर भी नहीं माने तो प्रेस को अपना वह बैंक खाता ही ब्लॉक करना पड़ा ।
गीता प्रेस की किताबों के आप पक्षधर हों , यह जरूरी नहीं । उसकी सभी किताबें पठनीय हैं , ऐसा मैं भी नहीं मानता । पुरातन भारतीय परंपराओं को पुनर्जीवित करने के मोह में उसने बहुत कुछ कूड़ा भी छापा है । स्त्रियों के प्रति हेय नजरिए और मनुवादी सोच वाली ये किताबें आने वाले समय में गीता प्रेस के लिए अवश्य ही मुसीबत बनेंगी । सच कहूं तो गीता प्रेस ही नही ऐसी तमाम संस्थाएं एक खास किस्म के खतरे में हैं और यह खतरा है बुद्धिमता के विरोध यानि एंटी इंटेलेक्टुइज्म का । बेशक अब धर्म कर्म का दिखावा बढ़ा है मगर धर्म संबंधी ज्ञान खतरे में है । गूढ़ बातें किसी को नहीं सुहातीं । वैसे भी जब कलावा बांधने, टीका लगा लेने, जल चढ़ाने और मंगल वार को गुलदाने का प्रसाद बांटने भर से ही काम चल जाता हो तो वेद, पुराण उप निषादों में कौन दिमाग खपाये । सयाने कहते भी तो हैं कि गाड़ी जिस और जा रही हो , मुंह उधर करके बैठना चाहिए । अब यह तो सत्य है कि गाड़ी कम से कम उधर तो नहीं जा रही , जिधर गीता प्रेस वाले लोग ले जाना चाह रहे हैं ।