माचिस थामे हाथ
माचिस थामे हाथ
रवि अरोड़ा
मुर्शिदाबाद में हुई हिंसा और आगजनी से मन व्यथित है। तीन हत्याएं हुईं और कई सौ घर फूंक दिए गए । यह सब हुआ उस शहर में जहां 66 फीसदी मुस्लिम आबादी है और हिंदू अल्पसंख्यक हैं। जाहिर है कि हिंसा में नुकसान भी हिंदुओं का ही अधिक हुआ । वक्फ कानून का विरोध करने के नाम पर की गई इस हिंसा ने देश के अल्पसंख्यक उन मुस्लिमों का भी बहुत नुकसान किया है जो वक्फ कानून के खिलाफ धर्म निरपेक्ष और पढ़े लिए हिंदुओं से सहयोग की अपेक्षा कर रहे हैं । सर्वविदित है कि संसद से लेकर सर्वोच्च्य न्यायालय तक इन्हीं सेकुलर हिंदुओं के कारण ही वक्फ कानून पर देशव्यापी बहस संभव हो सकी है । आश्चर्य नहीं कि मुर्शिदाबाद की हिंसा से यह नैरेटिव मजबूत हुआ है कि जहां जहां मुस्लिमों की आबादी अधिक अथवा हिंदुओं के बराबर होती है, वहीं वहीं दंगे अधिक होते हैं। हालांकि यह सत्य नहीं है और अहमदाबाद , दिल्ली, जयपुर और मुंबई जैसे तमाम ऐसे शहरों में भी खूब दंगे होते रहे हैं जहां मुस्लिमों की आबादी मात्र दस से चौदह फीसदी ही है। बेशक तमाम राजनीतिक दल अब कुछ भी राग अलापें मगर ताजा दंगों का तमाम जांचों, अदालती बहसों और राजनीतिक बयानबाजी के अतिरिक्त समाजशास्त्रीय विश्लेषण भी अवश्य होना चाहिए ।
मुर्शिदाबाद की हिंसा यकीनन टाली जा सकती थी। सच बात तो है कि देश में जाति, धर्म और संप्रदाय के नाम हो चुकी हर हिंसा टाली जा सकती थी मगर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ । राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुरूप आजादी के बाद से अब तक पंद्रह हजार से अधिक दंगे मुल्क में हो चुके हैं और उनमें से अधिकांश दो प्रमुख धर्मों को मानने वालों के बीच ही हुए हैं। बेशक इसका गहन विश्लेषण करना सरकारों का काम है मगर न जाने क्यों यह होता नहीं दिखता । यह साफ दिखाई देता है कि आजादी के बाद सन 1960 तक जो दंगे देश में हुए उनका प्रमुख कारण बंटवारे की विरासत में मिली कड़वाहट ही थी । सातवें और आठवें दशक में व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा और आर्थिक असमानता दंगों की पृष्ठभूमि तैयार करती थी। नवें दशक में राम मंदिर आंदोलन के बाद धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण ने नफरत को जन्म दिया और अब नई शताब्दी में हुए तमाम दंगों का कारण दिन प्रतिदिन तीव्र होती राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और धर्म को राजनीति के प्रमुख हथियार के रूप में इस्तेमाल करना ही है। आज जब बंटवारे का शिकार हुई पीढ़ी फना हो चुकी है अथवा इसे भूल चुकी है। विगत पैंतीस सालों में हुई देश की आर्थिक तरक्की ने आपसी प्रतिद्वंदता को लगभग खत्म कर दिया है और तरक्की हर दरवाजे तक जा पहुंची है। जिन्होंने तरक्की नहीं की वे अपने भाग्य के रूप में इसे स्वीकार कर चुके हैं। ऐसे में यदि देश के राजनीतिज्ञ भी समझदारी दिखाएं तो आपसी बैर का कोई कारण शेष नहीं बचता मगर देश का दुर्भाग्य कि ऐसा हो नहीं रहा । मुर्शिदाबाद की हिंसा तो विशुद्ध रूप से राजनीति की ही देन है। देश को वक्फ कानून की कितनी आवश्यकता थी अथवा नहीं थी, इसपर बहस हो सकती है मगर इसे कैसे झुठलाया जाए कि मुर्शिदाबाद में हुआ ताजा दंगा वक्फ कानून के विरोध के चलते ही हुआ । क्या यह जांच का विषय नहीं होना चाहिए कि आजादी के 77 साल बाद तक सौहार्द का प्रतीक बने रहे मुर्शिदाबाद में दंगा अब क्यों और किसने भड़काया ? जाहिर है कि निष्पक्ष जांच हो तो आग लगाने वाले हाथ कुछ खास नेताओं के ही निकलेंगे ।
बेशक नरेंद्र मोदी के ग्यारह साल के शासन में लगभग छह हजार दंगे देश भर में हुए जो मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में हुए आठ हजार के मुकाबले काफी कम हैं और उधर, योगी आदित्यनाथ का रिकॉर्ड भी अपने पूर्व मुख्यमंत्रियों के मुकाबले बेहतर है मगर क्या यह सत्य नहीं कि इन नेताओं के कार्यकाल में जो दंगे भी हुए उनका कारण विशुद्ध रूप से राजनीतिक ही था ? चाहे सीएए का मुद्दा हो या एनआरसी का, लव जिहाद हो अथवा गौ रक्षा और अब वक्फ कानून का मुद्दा , साफ दर्शाता है कि आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा , बेहतर आर्थिकी और सही अर्थों में तमाम धर्मों की मनुष्यता पर कमजोर पड़ती पकड़ के इस दौर में हो रहे हरेक दंगे के दोषी हमारे नेता भी कम नहीं हैं।