मंदिर, लड्डू और सर्कस
रवि अरोड़ा
कई साल पहले जिज्ञासु मना मैं भी मित्र मंडली समेत तिरुपति बाला जी मंदिर पहुंच गया था । यह देख कर मन खिन्न हुआ कि मंदिर में प्रवेश हेतु तीन सौ रुपए की टिकिट कटवानी पड़ी। उस पर प्रसाद के रूप में अजीब सी महक वाले लड्डू पचास रुपए प्रति की दर से दिए गए । यही नहीं प्रसाद रखने के लिए मंदिर प्रशासन ने प्लास्टिक की पन्नी के भी तीन रुपए अलग से वसूले। चलिए हमने तो वीआईपी दर्शन की इच्छा जाहिर की थी , इसलिए हमसे इतने पैसे लिए गए मगर उन गरीब गुरबा भक्तों का क्या जिन्हे सामान्य दर्शन के लिए भी पचास रुपए की टिकिट कटवानी पड़ रही थी । कथित बड़े आदमियों के लिए खास वीआईपी ब्रेक दर्शन की भी स्कीम मंदिर के पास दिखी और दस हजार पांच सौ रुपए देकर ये लोग आरती के समय ठाठ से मंदिर में प्रवेश करते दिखे । वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर ही नहीं तिरुपति के अन्य चर्चित मंदिरों में भी टिकिट लेकर प्रवेश की अनुमति मिली । मेरे इन शब्दों के लिए आप मुझे क्षमा करें परन्तु उस समय तो मुझे यही महसूस हुआ था कि मैं किसी मंदिर में नहीं वरन सर्कस में चला आया हूं और वहां मेरी जेब के वजन के हिसाब से मुझे महत्व मिल रहा है। चूंकि मैं बचपन से ही गुरुद्वारों में मुफ्त बंटते लंगर देखने का अभ्यस्त था अतः हो सकता है कि इस मामले को मैने कुछ अधिक ही मन से लगा लिया हो मगर इस बात को आप किस तरह से लेंगे कि हम हिंदुओं के अतिरिक्त दुनिया का अन्य कोई धर्म अपने अनुयायियों से इस तरह की चौथ नहीं वसूलता । अब जाहिर है कि उसके बाद मैं तिरुपति मंदिर कभी नहीं गया और ऐसे किसी अन्य मंदिर में जाने की भी अब कोई इच्छा नहीं होती जहां टिकिट लेकर भीतर जाना पड़े।
श्री वेंकेश्वर स्वामी मंदिर के प्रसाद के रूप में विवादित लड्डू बांटे जाने की खबरों के बीच मुझे आज अपनी तिरुपति यात्रा बहुत याद आ रही है। वहां की आठ लाख की आबादी में लगभग एक लाख लोग मुस्लिम हैं। इन मुस्लिमों का इस मंदिर से गहरा नाता है और ये लोग भी नियमित रूप से वेंकटेश्वर मंदिर दर्शन करने जाते हैं। मैं यह सोच कर ही भयभीत हो जाता हूं कि यदि मंदिर को मिलावटी देशी घी की आपूर्ति किसी मुस्लिम ने की होती तब देश में क्या होता ? प्रदेश का मुख्यमंत्री जब कह रहा है कि लड्डुओं में इस्तेमाल किए जाने वाले देशी घी में गाय और सूअर की चर्बी मिलाई जा रही थी तो इसे हल्के से भी कैसे लिया जा सकता है । मंदिर में तीन लाख लडडू रोजाना बनते हैं और उसके लिए दस हजार किलो देशी घी खरीदा जाता है। घी में मिलावट हुई है इसकी पुष्टि भी गुजरात की एक नामी सरकारी प्रयोगशाला से हो चुकी है। मंदिर में रोजाना कम से कम एक लाख लोग दर्शन के लिए आते हैं। साल भर में यह संख्या तीन करोड़ से अधिक बैठती है मगर हैरानी की बात है कि अनुयायियों की इतनी बड़ी संख्या के बावजूद देश में जरा सी भी प्रतिक्रिया नहीं हुई । ट्रकों में मांस अथवा जानवरों के अवशेष लेकर जा रहे लोगों पर गो हत्या का आरोप लगा कर उनकी पीट पीट कर हत्या करने वाले भी न जाने कहां बिला गए । क्या धर्म के नाम पर खुराफात करने वालों के लिए धर्म केवल उत्पात करने की शय भर है या उनकी धार्मिक आस्थाएं केवल ढोंग हैं ? क्या यह हैरानी का विषय नहीं है कि जिस देश में कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी मिलाए जाने की खबरों ने 1857 की क्रांति को जन्म दे दिया और अब उसी देश के सबसे अधिक चर्चित तिरुपति के श्री वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर के प्रसाद में गाय और सूअर की चर्बी मिलाए जाने के रहस्योद्घाटन के बावजूद देश में पत्ता तक नहीं खड़का ?
हो सकता है कि आधुनिकता और मांसाहार के इस दौर में जानवरों की चर्बी मिला घी हमारी संवेदनाओं को छूने से परहेज करता हो । यह भी हो सकता है कि हम लोग मान ही चुके हों कि मिलावट के इस युग में असली देशी घी की आपूर्ति संभव ही नहीं है । मगर तमाम नियम और कानून तय करने वाली हमारी सरकारें क्या कर रही हैं, उन्होंने क्यों चर्बी मिले घी की आपूर्ति करने वाली कंपनी को ब्लैक लिस्ट करने के अतिरिक्त अभी तक कोई अन्य कार्रवाई नहीं की ? हिन्दू-हिंदुत्व की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल भी किस कारण से मुंह में दही जमाए बैठे हैं ? हो सकता है कि इस मामले में मेरी अपेक्षाएं आपको कुछ अधिक लगें मगर पता नहीं क्यों लगता है कि यही वह सही वक्त है जब तमाम धार्मिक स्थानों को धर्म के ठेकेदारों के जाल से मुक्त करा कर ही दम लिया जाना चाहिए । आशंकाएं जन्म लेती हैं कि यदि अभी भी हम कुछ नहीं करते तो यकीनन हमारे धार्मिक स्थल किसी सर्कस सरीखे ही बन कर रह जायेंगे ।