भोले या लल्लू
रवि अरोड़ा
मुझे बचपन से ही एक दुविधा रहती है । कोई जब किसी को भोला कह रहा होता है तो मैं समझ नहीं पाता कि यह सामने वाले की तारीफ़ हो रही है या इशारों ही इशारों में उसे लल्लू बताया जा रहा है । वैसे तो भोला, शरीफ़ , सीधा, मूर्ख और लल्लू जैसे शब्द मुझे एक ही परिवार के लगते हैं । अब सीएए यानि नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में देश भर में ख़ुराफ़ात करने वाले भी मुझे एसे ही लगते हैं । वैसे सच कहूँ इसके घनघोर समर्थकों के बारे में भी मेरी यही राय है । इस मामले में यदि कोई सयाना नज़र आता है तो वे हैं देश के तमाम राजनीतिज्ञ , जिनकी दुकान आजकल ख़ूब चल रही है । हर किसी नेता को गला साफ़ करने का मौक़ा मिल रहा है और हर छोटे से छोटा नेता भी डिमांड में है । हालाँकि मुझ जैसे साधारण लोगों की भी इस मुद्दे पर थोड़ी बहुत राय है मगर इस तीसरे कोण की न तो कोई डिमांड है और न ही नक्कारखाने में तूती सी उसकी राय का कोई मतलब है । ले देकर चंद हमख़याल लोग हैं सो उनसे ही बात कर जी बहला लेते हैं ।
साझी विरासत, साझी शहादत और साझे मुल्क के तराज़ू का पलड़ा एक ओर झुकते देखना यक़ीनन मुझ जैसों के लिए तकलीफ़देय है । धर्मनिरपेक्षता की घुट्टी पीये हुए मुझ जैसे करोड़ों लोग मुल्क को धर्मसापेक्ष बनते हुए टुकुर टुकुर देख रहे हैं । नतीजा देश की चाल-ढाल बदलने के प्रयास एक के बाद एक विभेदकारी क़ानूनों से आगे बढ़ रहे हैं । बँटवारे के समय लम्बी चर्चाओं के बाद जो सेकुलर मार्ग हमने चुना था उससे यूटर्न लेने की बातें अब जम कर हवाओं में हैं । साफ़ तौर पर केवल एक धर्म के लोगों को संदेश दिया जा रहा है कि हम मकान मालिक हैं और तुम किराएदार । अब डरा हुआ आदमी हमलावर हो जाए तो इसमें आश्चर्य क्या है ? वैसे योगी जी बिलकुल ठीक कर रहे हैं जो चुन चुन कर दंगाइयों द्वारा नष्ट की गई सार्वजनिक सम्पत्ति की क़ीमत उन्ही से वसूल रहे हैं । एसा होना ही चाहिये । जान माल का नुक़सान करने वाले को आंदोलनकारी नहीं दंगाई ही माना जाना चाहिये मगर क्या उन पर भी कोई कार्रवाई होगी जिन्होंने यह माहौल बनाया अथवा लोगों को भड़काया ? वैसे सीएए का विरोध करने वालों ने तोड़फोड़ कर ख़ुद ही अपने आंदोलन की हवा निकाल ली। अब दंगाइयों से तो यूँ ही निपटा जाता है , जैसा पुलिस-प्रशासन और सरकार निपट रही है । ये दंगाई हरियाणा के जाट आंदोलन वाले अथवा राम रहीम के भक्तों जैसे उनके वोटर तो हैं नहीं जो यूँ ही जाने दें ।
शुक्र है कि प्रधानमंत्री मोदी जी के भाषण से बात साफ़ हो गई और स्पष्ट हो गया है कि एनआरसी पर सरकार बैकफ़ुट पर है । नागरिकता संशोधन पर तो क़ानून बन चुका है मगर एनआरसी पर शायद ही अब बात आगे बढ़े । दरअसल इस मुद्दे पर विरोध होगा यह तो सरकार को पता था मगर इतना बड़ा बवाल होगा यह उसने शायद ही सोचा हो । अनेक राज्य सरकारों के इसके ख़िलाफ़ उठ खड़े होने से गणतांत्रिक मूल्यों पर भी ख़तरा मँडराने लगा है । नोटबंदी और जीएसटी से हाथ जलवा चुकी सरकार अब कोई बड़ी मुसीबत मोल लेगी , इसकी उम्मीद नहीं है । यूँ भी सरकार पर क़ाबिज़ भाजपा का काम तो सध ही चुका है । अपने हिंदू वोटबैंक के बीच वह जो संदेश देना चाहती थी , वह पहुँच ही गया है । निश्चित रूप से बंगाल और दिल्ली के चुनावों में इसका फ़ायदा भी उसे मिलेगा । मंदी, बेरोज़गारी और महँगाई से त्रस्त उसका जो वोटबैंक विचलित था वह अब ध्रुवीकरण की बयार में पूरी तरह हिंदू बना घूमने लगा है । उधर कांग्रेस समेत विपक्षी पार्टियाँ भी जम कर अपनी फ़सल काट रही हैं । मुसलमान तो थोक में साथ आ ही गया है साथ ही सेकुलर क़िस्म के लोगों के बीच भी पैठ मज़बूत हुई है । एनआरसी की अब किसी को ज़रूरत भी क्या है , जब उसके नाम से ही काम चल रहा है । सभी दल अपनी भेड़ें गिन चुके हैं और अब बस अपने अपने बाड़े में लाने का काम है जो चल ही रहा है । कुल मिला कर सभी दलों और तमाम राजनीतिज्ञों के लिये विन-विन वाली स्थिति है । इनकी भी पौ बारह और उनका भी हर बाल पर छक्का । उधर दर्शकदीर्घा में तालियाँ पीटने के लिए हम जैसे लल्लू मुआफ़ कीजिएगा भोले लोग हैं ही ।