भड़ासी जत्थे
रवि अरोड़ा
सिनेमा घर में जाकर फ़िल्म देखे हुए मुझे लगभग ढाई साल हो गए हैं। मेरे इर्द गिर्द के अधिकांश लोगों का भी यही हाल है। कोरोना के आगमन के बाद सबकी दुनिया बदल गई है और छुट्टी के दिन फ़िल्म देखने जाने की आदत लगभग छुट सी गई है। कई बार तो हैरानी होती है कि कैसे हम यह सब किया करते थे ? पहले फ़िल्म देखो और फिर परिवार के साथ जाकर किसी रेस्टोरेंट में खाना खाओ। इंटरवल में भी कोल्ड ड्रिंक्स और पॉपकॉर्न किसी अनुष्ठान जैसे जरूरी होते थे । हालांकि बहुत से लोग तो आजकल आलस के चलते सिनेमा घर नहीं जाते होंगे मगर अधिकांश लोग तो महंगाई के इस दौर में खर्चा बचाने को भी फ़िल्म देखने नहीं जाते । यूं भी ओटीटी प्लेटफॉर्म पर ही अब इतनी फिल्में बिखरी पड़ी रहती हैं कि मनोरंजन का कोटा उन्हीं से पूरा हो जाता है। जिस फ़िल्म के बाबत सोचो, वही हाज़िर हो जाती है। ऊपर से सीरियल्स की भी इतनी भरमार है कि किसी सूरत आप सभी देख ही नहीं सकते। इसी का ही नतीजा है कि सिनेमा घर खाली पड़े हैं। मगर ये क्या हो रहा है पब्लिक की बदली इस आदत और मजबूरी को भड़ासी जत्थे अपनी जीत क्यों मान रहे हैं ? उन्हें क्यों लग रहा है कि उनके बॉयकॉट के आव्हान के चलते ही फलां फलां फिल्म नहीं चली और अब हर दूसरी फिल्म के बाबत यही अभियान चला रहे हैं ?
हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि सोशल मीडिया बहुत ताकतवर है और अपने पैने दांतों और नाखूनों से किसी फिल्म को भी नुकसान पहुंचा सकता है। मगर कोई फिल्म इसी के कारण चलेगी अथवा पिटेगी, ऐसा भी नहीं है। यकीनन कश्मीर फाइल्स जैसी प्रोपेगेंडा फिल्म को ढाई सौ करोड़ रूपए कमवा कर देने में सोशल मीडिया का भी योगदान था मगर उसे असली मदद मिली मुल्क की राजनीति से । मुख्यमंत्रियों से लेकर प्रधानमंत्री तक जिस फिल्म के साथ खड़े हो जाएं और फ्री टिकिट बांटने से लेकर अनेक राज्यों में उसे टैक्स फ्री तक कर दिया जाए तो इतनी सफलता उसे मिलनी ही थी मगर हमें एक सिरा नहीं मुकम्मल तस्वीर देखनी चाहिए । इस साल अब तक हिन्दी की कुल 48 फिल्में रिलीज़ हो चुकी हैं और सभी फ्लॉप हुईं। पिछले साल 62 फिल्में आईं और उनमें से सिर्फ एक भूल भुलैया 2 ही चली । साल 2020 में 56 फ़िल्मों ने सिनेमा घर का मुंह देखा और केवल तान्हा जी और शुभ मंगल ज्यादा सावधान ने थोड़ा बहुत कमाया और बाकी सब घाटे में गईं। इनमें बडे़ बडे़ सुपर स्टार की भी फिल्में थीं और ऐसी भी थीं जिनके निर्माण में पानी की तरह पैसा बहाया गया। पिछले तीन साल साल में एक भी ऐसी फिल्म नहीं आई जिसका कलेक्शन पांच सौ करोड़ पहुंचा हो जबकि कोरोना से पहले बॉलीवुड की 9 ऐसी फिल्में धूम मचा चुकी थीं। इन नौ फ़िल्मों में से सात फिल्में उन्हीं सलमान खान, आमिर खान और शाहरूख खान की थीं जिनके खिलाफ ये भड़ासी जत्थे सोशल मीडिया पर आजकल छाती पीट रहे हैं।
फ़िल्मों के बाबत सीधा सादा गणित है कि जो फिल्म अच्छी होगी वह जरूर चलेगी और जो कूड़ा होगी उसे तमाम मशक्कत के बावजूद चलाया नहीं जा सकेगा । बेशक पिछले तीन सालों में कुछ फिल्में अच्छी भी बनीं मगर उसके न चलने की वजह लोगों की बदली आदत और माली हालत दोनो हैं। हां दक्षिण भारतीय फिल्मों की कहानी अलग है। वहां एक हजार से अधिक कलेक्शन वाली भी कई फिल्में इन दिनों आ चुकी हैं।
हो सकता है कि हमारी फिल्मों ने देश और समाज को कुछ नुकसान भी पहुंचाया हो मगर 140 करोड़ भारतीय के मनोरंजन में तो उसने वह कर दिखाया है जिसकी पूरी दुनिया कोई दूसरी मिसाल नहीं है। बॉयकॉट मुहीम वालों को अपनी तो बस इतनी सी सलाह है कि ऐसा न हो कि तुम्हारी इन हरकतों से तंग आकर मुल्क में फिल्में बननी ही बंद हो जाएं। जरा विचार करें कि ये फिल्में ही हैं जो सेफ्टी वॉल्व का काम करती हैं। लोगों को लगता है कि वे खुद नहीं तो क्या हुआ, अन्याय के खिलाफ उनका हीरो तो लड़ता है। ये फिल्में भी न रहीं तो कहीं ऐसा न हो कि पब्लिक अपनी बदहाली के बाबत खुद कुछ सोचना अथवा करना शुरू कर दे ? यदि ऐसा हुआ तो फिर ना जाने किस किस का बॉयकॉट होगा ?