बात सिर्फ चोले की नहीं है
रवि अरोड़ा
इस बात को कई साल हो गए । हिंदी भवन में किसी सेठ की उठावनी का कार्यक्रम था । धार्मिक गतिविधियों के संचालन के लिए सेठ के परिजनों ने एक नामी गिरामी सन्यासी को बुलाया हुआ था । इस सन्यासी ने अपने संबोधन में सेठ अथवा धर्म कर्म पर कम बोला और हिंदुओं के सिर पर मंडरा रहे कथितखतरे के बाबत अधिक कहा । सन्यासी बोला कि इस खतरे से बचने का एक ही तरीका है कि हिंदू अपनी आबादी बढ़ाएं और दस दस बच्चे पैदा करें । कार्यक्रम खत्म होते ही सन्यासी बड़ी शान से मंच के नीचे उतरा और यह उम्मीद लगाए हुए था कि लोग बाग उसकी शान में कसीदे पढ़ेंगे और उसे हाथों हाथ लेंगे मगर हुआ इसके उलट । पब्लिक संन्यासी पर चढ़ दौड़ी और उसकी शिक्षा, धर्मकर्म और उसकी राजनीतिक सामजिक समझ से संबंधित अनेक तीखे सवाल कर डाले। बाद के दिनों में मैंने देखा कि नासमझी की बातें करने वाला वही सन्यासी अपने तीखे बयानों और नित नए विवादों के चलते बड़ा आदमी हो गया । तीन दिन पहले पता चला कि उसे अब साधुओं के बड़े अखाड़े द्वारा महामंडलेश्वर बनाया गया है । चलिए कोई बात नहीं मगर यह क्या , आज ही अखबार में खबर छपी की स्थानीय पुलिस ने उस संन्यासी पर गुंडा एक्ट लगाने की तैयारी कर ली है ? मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मेरे हिंदू धर्म में ये हो क्या रहा है ? धर्म और नासमझी का चोली दामन का साथ तो शुरू से ही रहा ही है । धर्म और राजनीति का घालमेल भी बहुत पुराना हो गया मगर देखते ही देखते धर्म और अपराध कैसे आपस में जुड़ गए ?
वैसे तो गेरुए वस्त्र की अस्मिता पर दाग कोई नई बात नही है । हत्या, बलात्कार और दंगे फसाद जैसे संगीन अपराधों में न जाने कितने साधु सन्यासी अब सलाखों के पीछे हैं । ऐसे ऐसे कथित संत भी जेलों में बंद हैं जिनके पांव प्रधानमंत्री तक छूते थे । मगर अब बात कुछ ज्यादा ही बिगड़ती जा रही है । गेरुआ वस्त्र पहले लोग अरबों रुपयों का व्यापार कर रहे हैं । भगवा चोला धारण किए लोग मंत्री मुख्यमंत्री बन गए । चलिए यहां तक तो फिर भी हजम हुआ मगर अब ये क्या हो रहा है ? प्रतिष्ठित महामंडलेशेवर का पद और गुंडा एक्ट एक साथ ? मै तो अब तक यही समझता था कि जो गुंडा है वह महामंडलेश्वर नही हो सकता और जो महामंडलेश्वर है वह गुंडा कैसे हो सकता है मगर क्या करूं अखबारों की खबरें तो यही सब बता रही हैं ।
जानकर बताते हैं कि देश में साधु संन्यासियों की संख्या एक करोड़ से अधिक हैं । इनमें पांच लाख से अधिक तो नागा बाबा ही हैं । जाहिर है कि ये बाबा लोग कोई काम धाम नही करते और इनका खर्च धर्मानुयायी लोग उठाते हैं । किसी गरीब देश में इतनी बड़ी श्रम शक्ति का यूं जाया होना कोई अच्छी बात तो नहीं है मगर फिर भी यह मुल्क खुशी खुशी इसे स्वीकार किए हुए हैं । हजारों सालों की परंपरा और संस्कार का ही असर है कि सब कुछ समझते हुए भी गेरुआ वस्त्र पहने व्यक्ति को देखते ही आम भारतीय के हाथ उसके पैरों की ओर बढ़ जाते हैं । किसी आशीर्वाद की आकांक्षा में यथोचित भेंट पूजा भी लोग बाग करते हैं । ऐसे में क्या ऐसे वस्त्र धारण किए लोगों का कर्तव्य नहीं कि वे अपने चोले के सम्मान की रक्षा करें ? वे कब समझेंगे कि उनके सम्मान से पूर्व उनके वस्त्रों का सम्मान हो रहा है और इस वस्त्रों की गरिमा बनाए रखना उनका पहला कर्तव्य है । गेरुआ वस्त्र पहले हुए हर इंसान को क्या यह सोचना नही चाहिए कि उसकी किसी ऐसी वैसी हरकत से उसका पूरा वर्ग शर्मिंदा हो सकता है ? आपकी आप जाने मगर मुझे तो यही लगता है कि इस देश में सफेद खादी के कपड़ों को जैसे नेताओं ने बदनाम कर दिया है और खादी पहने व्यक्ति को देखते ही लोग उसे चोर समझने लगते हैं । उसी प्रकार आज के अनेक साधु सन्यासी भी गेरुआ वस्त्रों की गरिमा खत्म करने पर लगे हैं और कोई बड़ी बात नहीं कि भविष्य मेंइस वस्त्रों को देखते ही लोगबाग भयभीत होने लगें ।