बात साईकिल की
रवि अरोड़ा
पता नहीं आपने ग़ौर किया अथवा नहीं मगर मैं तो बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ कि छोटे-मोटे काम के लिये अब लोग बाग़ कार-स्कूटर नहीं निकालते और बस साइकिल से ही काम चला लेते हैं । शायद अपनी इम्यूनिटी बेहतर करने के लिये वे एसा कर रहे हों अथवा पेट्रोल का पैसा बचाने की लिये मगर एसा हो तो रहा ही है । यूँ भी जब सोशल डिसटेंसिंग का पालन करना हो और घर से बाहर भी निकलना ज़रूरी हो तो साइकिल से बढ़िया वाहन और क्या होगा ? यही नहीं वर्कआउट करने की ग़रज़ से युवा पीढ़ी भी तेज़ी से साइकिल की ओर आकर्षित हो रही है और अब सुबह शाम लड़के-लड़कियों के झुंड सड़कों पर साइकिलिंग करते नज़र आते हैं । जब से जिम बंद हुए हैं तब से फ़िटनेस के दीवाने कोई अच्छा विकल्प ढूँढ रहे थे और लगता है कि अब उनकी खोज साइकिल पर जाकर पूरी हो गई है ।
महामारी कोरोना ने तमाम मुसीबतें दी हैं मगर ज़हर के भी तो कुछ फ़ायदे होते ही हैं । यह मुसीबत भी दो-चार तोहफ़े तो लाई ही है । पर्यावरण में सुधार के साथ साथ पर्यावरण के लिए मुफ़ीद साइकिल का क्रेज़ भी अब लौटा है । अकेले हमारे शहर अथवा देश में नहीं वरन पूरी दुनिया में एसा हुआ है । यूरोप के कई देशों में तो साइकिल की बिक्री दो सौ परसेंट तक बढ़ गई है । इटली जैसे देशों ने बेहतर पर्यावरण की गरज से साइकिल की ख़रीद पर साठ फ़ीसदी तक सब्सिडी देनी शुरू कर दी है । फ़िनलैंड जैसे देशों ने साइकिल चालकों के लिए सड़कों पर नए ट्रैक बनाने शुरू कर दिए हैं । साइकिलों की बढ़ती माँग के चलते दुनिया की तमाम साइकिल निर्माता कम्पनियों के शेयर पंद्रह परसेंट तक चढ़ गये हैं ।
अजब विडम्बना है कि एक हज़ार सिफ़तों के बावजूद हमारे देश में आज भी साइकिल को ग़रीब आदमी का वाहन ही माना जाता है । चार पैसे आते ही आदमी सबसे पहले अपनी साइकिल से जान छुड़ाता है और किश्तों पर स्कूटर-मोटर साइकिल ले आता है । स्वतंत्र भारत की तमाम सरकारों ने भी साइकिल को हेय दृष्टि से देखा और साइकिल सवारों के लिये कहीं कोई सुविधा विकसित नहीं की । उत्तर प्रदेश में अवश्य अखिलेश यादव की सरकार ने सड़कों पर साइकिल ट्रैक बनाये मगर वे भी राजनीतिक ड्रामा और खाने-कमाने का जुगाड़ भर ही थे और यही वजह रही कि ये ट्रैक इस्तेमाल ही नहीं हुए और सैंकड़ों करोड़ रुपया नाली में बह गया । मुल्क में साइकिल सवार को कितना दयनीय माना जाता है इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि मुल्क के अधिकांश थानों में दशकों से साइकिल चोरी की कोई रिपोर्ट ही दर्ज नहीं हुई । सड़क दुर्घटना में मरे साइकिल सवार की भी पूरी बेक़द्री होती है जबकि पैदल के बाद साइकिल सवार ही सर्वाधिक दुर्घटनाओं के शिकार होते हैं । साइकिल को लेकर इसी हेय दृष्टि का ही परिणाम है कि सस्ती और चलाने की लागत न होने के बावजूद देश की मात्र नौ परसेंट आबादी के पास ही आज साइकिल है । जबकि जापान में 70 और चीन में 37 फ़ीसदी आबादी के पास साइकिल है । दुनिया में नीदरलैण्ड जैसे भी मुल्क हैं जहाँ हर घर में कम से कम एक साइकिल ज़रूर है । जबकि हमारे पूरे देश की 135 करोड़ आबादी के पास मात्र 11 करोड़ साइकिलें हैं । देश में आबादी बेशक तेज़ी से बढ़ी हो मगर साइकिल बिक्री की बढ़ोत्तरी पूरे एक दशक में मात्र तीन परसेंट ही हुई ।
अब क़ोरोना की वजह से साइकिलों की बिक्री ज़रूर बढ़ी है मगर कह नहीं सकते कि यह लहर स्थाई है अथवा तात्कालिक । यूँ भी यह लहर किसी फ़ैशन जैसी ही नज़र आ रही है । क्योंकि बाज़ार में सामान्य साइकिलों की बजाय फ़ैन्सी और महँगी साइकिलों की अधिक माँग है । बीस हज़ार से सत्तर हज़ार रुपये वाली साइकिलों पर तो आजकल ब्लैक भी है । बाज़ार में इन साइकिलों की माँग इतनी है कि आपूर्ति ही नहीं हो पा रही । दुकानदार कह रहे हैं कि साइकिलों की इतनी डिमांड उन्होंने आजतक नहीं देखी । मुझे लगता है कि मोदी सरकार को आपदा में अवसर वाले अपने ब्रह्म वाक्य पर काम करने की ज़रूरत है और किसी न किसी तरह फ़ैशन की इस लहर को थाम लेने की आवश्यकता है । मेरे ख़याल से समाज में साइकिल की गरिमा स्थापित करने को सबसे पहले तो इससे ग़रीब आदमी के वाहन का तमग़ा हटाना पड़ेगा । इसके लिए और क्या क्या किया जाये इस पर आप भी विमर्श करें तो बेहतर होगा ।