बात लूलुओं की

रवि अरोड़ा
सुबह से कई लोगों को फ़ोन कर चुका हूँ मगर संतोषजनक उत्तर नहीं मिला । बाबा गूगल भी तसल्लीबक्श जवाब नहीं दे पा रहा । दरअसल मैं ‘ लूलू ‘ शब्द का कोई शालीन सा पर्यायवाची शब्द ढूँढ रहा हूँ मगर मिल ही नहीं रहा । कोई कहता है इसके बदले निरा बेवक़ूफ़ शब्द इस्तेमाल किया जा सकता है तो कोई इसका सही शाब्दिक अर्थ बेवक़ूफ़ बताता है । अंग्रेज़ीदाँ लोग क्रेज़ी जैसे शब्द थमा देते हैं मगर सटीक जवाब कहीं नहीं मिल रहा । अब आप पूछ सकते हैं कि आख़िर लूलू शब्द पर मेरा गेयर क्यों अटका हुआ है । जनाब दरअसल मैं ऊँची कुर्सियों पर बैठे लोगों को जो नीतियाँ बनाते हैं , उन्हें लूलू कहे बिना लूलू कहना चाहता हूँ इस लिए कोई बढ़िया सा पर्यायवाची शब्द तलाश रहा हूँ । चलिए आप अपने मन मे कोई भी इसका विकल्प तय कर लीजिये और पूरा ध्यान इन लूलुओं की रीति-नीति पर केंद्रित कीजिये ।
शुरुआती लॉकडाउन में जब हालात सामान्य थे तब सख़्ती और अब जब मरीज़ों का आँकड़ा सवा लाख पार कर गया तब अनेक प्रकार की छूट की बहस पुरानी हो गई है । लाखों लाख मज़दूरों के सड़कों पर भूखे प्यासे सैंकड़ों किलोमीटर का सफ़र पैदल तय करने पर चर्चा भी बासी है । लॉकडाउन की तकलीफ़ों से मरे सैंकड़ों लोगों पर अब बात करने का भी कोई मोल नहीं । अब तो बस हर कोई यह जानना चाह रहा है कि एसे में जब संकट चरम की ओर बढ़ रहा है तब हवाई यात्रा क्यों शुरू की जा रही हैं ? जबकि इस सत्य से सरकार भी वाक़िफ़ है कि देश में क़ोरोना की आमद हवाई यात्रियों के कारण ही हुई । सत्तर फ़ीसदी कोरोना मरीज़ उन्ही शहरों में हैं जहाँ हवाई अड्डे हैं । चलिए हवाई यात्रा किसी मजबूरीवश आपने खोल भी दी परंतु हवाई जहाज में एक सीट छोड़ कर बैठने का नियम क्यों नहीं बनाया जबकि यातायात के अन्य साधनों पर यह सख़्ती से लागू है । साफ़ दिख रहा है कि नियम बनाने वाले अमीर को उस निगाह से नहीं देखते जिससे ग़रीब को देखते हैं ।
अमीर-ग़रीब ही नहीं नीति निर्धारकों ने सरकारी और निजी लाभ को भी अलग अलग चश्मे से देखा है । लॉकडाउन चार में अनेक प्रकार की रियायतें केंद्र सरकार ने पहले ही दिन घोषित कर दीं थीं । प्रदेश सरकार ने भी कुछ बंदिशों के साथ अगले दिन बाज़ार खुलने की घोषणा कर दी मगर अनेक जिलों में बाज़ार अभी भी नहीं खुलने दिए गए । मेरे अपने शहर में पाँच दिन लग गये यह फ़ैसला होने में कि बाज़ार किस व्यवस्था के अनुरूप खुलेंगे । अब जब तय हुआ है तो इस तरह कि लोगबाग़ चक़रघिन्नी बने घूम रहे हैं । हर इलाक़े के लिए केवल तीन दिन निर्धारित किये गए हैं । सोमवार को फ़लाँ इलाक़ा तो मंगलवार को फ़लाँ क्षेत्र । दुकान खुलने का समय भी होगा सुबह दस से शाम पाँच बजे तक । रविवार को सबकुछ बंद । उस दिन सफ़ाई करो और उस दिन बिक्री । अब कोई ऊँची कुर्सियों पर बैठे लोगों से पूछे कि नागरिक जेब में सूची लेकर घूमें कि आज कहाँ का बाज़ार खुला है और कहाँ का बंद है ? चंद दुकानों के सीमित समय के लिए खुलने से वहाँ भीड़ अधिक होगी अथवा कम ? कोई यह भी पूछे की इस तरह की बंदिशें शराब की दुकानों के लिए क्यों नहीं हैं ? वे तो पिछले बीस दिनो से खुली हैं और सातों दिन शाम सात बजे तक खुलती हैं । क्या उन पर इसलिए कोई बंदिश नहीं लग सकती कि उनसे सरकार को मोटी कमाई होती है और अन्य छोटी-मोटी दुकानें खुलने से मध्य वर्गीय परिवारों का पेट भरता है ?
लूलुओं ग़ौर से देखो । आज समाज में सबकी हालत पतली है । तुम्हारी शराब की दुकानों की बिक्री भी चालीस परसेंट रह गई है । देशी दुकानों की तो कई बार बोहनी भी नहीं हो रही और अंग्रेज़ी शराब की दुकान पर पंद्रह सौ रुपये से महँगी बोतल नहीं बिक रही । मौक़े की नज़ाकत समझ समझ कर शराब निर्माता भी अब महँगी शराब नहीं बना रहे । अपनी कमाई की आपको इतनी चिंता है कि निर्धारित कोटे से कम शराब बेचने वाले दुकानदार पर जुर्माना लगा रहे हो और उन छोटे दुकानदारों की ज़रा भी फ़िक्र नहीं जिन्हें रुपयों की शक्ल देखे हुए कई दिन हो गये ? श्रीमान लूलुओं जी ज़रा एयर कंडीशंड कमरों से बाहर आकर ज़मीनी हालत भी तो देखो ।

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