बस वही कसर बाकी है

रवि अरोड़ा
समय का पहिया घूमता हुआ कई बार इतिहास को दोहराने लगता है। बेशक पात्र बदल जाएं, परिस्थितियां भिन्न हों और परिणाम भी इतर निकलें मगर हालात कुछ पहले जैसे ही उपस्थित होने लगते हैं। अब से 48 साल पहले देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की लोकसभा की सदस्यता को इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायधीश जगमोहन सिन्हा ने ख़ारिज कर दिया था । एक बार फिर वही हालात हैं और इस बार इंदिरा गाँधी के पोते राहुल गांधी इसी कार्रवाई की जद में हैं। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं और राहुल विपक्ष के बड़े नेता हैं। इंदिरा गांधी सत्ता में थीं और उन्होंने आपातकाल लागू कर खुद को सही साबित करने की कोशिश की जबकि इस बार आपातकाल जैसे हालात बचाव पक्ष नहीं खुद हमलावरों द्वारा बनाए जा रहे हैं। उस समय इंदिरा गांधी के खोने के लिए देश का सबसे बड़ा ओहदा और ताकत थी जबकि इसबार राहुल के लिए खोने को तो कुछ है ही नहीं वरन संभावनाओं के तमाम द्वार भी अब उनके लिए खुलते नजर आ रहे हैं।

बेशक यह सब इत्तेफाक हो कि एक टिप्पणी के लिए राहुल गांधी को इस अपराध की अधिकतम सजा आनन फानन में दे दी गई हो और 24 घंटे के भीतर लोकसभा से उनकी सदस्यता भी खारिज कर दी गई मगर इसके राजनीतिक परिणामों से कोई कैसे इनकार कर सकता है। देश भर में संदेश तो चला ही गया है कि अडानी और मोदी सरकार के संबंधों पर सवाल उठाने के कारण ही राहुल गांधी की नकेल कसने की कोशिश की जा रही है। यह कोशिश कितनी सफल होगी यह तो आने वाला वक्त बताएगा मगर फिलवक्त तो यह मोदी जी की चूक ही मानी जा रही है। हर कोई जानता है कि स्वयं मोदी जी और उनके तमाम मंत्री संत्री किस स्तर की बातें सार्वजनिक रूप से करते रहे हैं और अब इसका सारा आरोप राहुल गांधी पर ही मढ़ दिया गया ? पालतू समझे जाने वाले भारतीय मीडिया ने भी इस मामले को जिस तरह से कवर किया है उससे भी राहुल को शुरुआती बढ़त ही हासिल होती दिखाई दे रही है। विदेशी मीडिया ने भी आश्चर्यजनक रूप से इस मामले में मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा किया है। राहुल तो खैर पहले से अधिक हमलावर हो ही गए हैं और अब एक कदम आगे बढ़ कर यह भी पूछने लगे हैं कि अडानी ग्रुप में शेल कम्पनियों के मार्फत लगा बीस हजार करोड़ रुपया किसका है ? खास बात यह भी है इस पूरे प्रकरण से पहले पूरा विपक्ष छितरा हुआ नजर आ रहा था और एकजुटता को लेकर उहापोह में था मगर अब अपने अस्तित्व की रक्षा को एकजुट होना उसकी मजबूरी सा हो गया है। बेचारे करें भी तो क्या, विपक्ष का ऐसा कौन सा बड़ा नेता है जिसे केंद्रीय एजेंसियों ने आजकल छका न रखा हो ?

आज के हालात की अनेक लोग आपातकाल से तुलना करते हैं। जाहिर है कि इस पर सत्तारूढ़ मंडली टिड्डी दल सी उनपर चिपट भी पड़ती है और इमरजेंसी की तमाम घटनाएं याद दिलाती है। यकीनन इमरजेंसी में जो हुआ वह भयावह था मगर क्या अब उसके दोहराव की ही कसर बाकी है ? क्या उससे जरा सी भी कमतर परिस्थिति को आपातकाल नहीं माना जायेगा ? यदि ऐसा है तो वह भी कर गुजरें । विरोधियों को जेलों में ठूंसने का काम तो चल ही रहा है। लगे हाथ बाकी के ‘खास’ कार्यक्रम भी शुरू कर दें।

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