बद कोई बदनाम कोई
रवि अरोड़ा
कहते हैं कि आदमी की नेकी बदी उसके आगे आगे चलती है । लेकिन आधुनिक समाज में तो केवल आपकी ही नहीं वरन आपके अपनों की नेकी बदियाँ भी सामने आ खड़ी होती हैं । अब शराब की दुकानों के सामने लगी लम्बी लाइनों को ही देख लीजिये । यक़ीनन इनमे वे लोग भी अवश्य रहे होंगे जो कल तक फ़्री राशन लेने वालों की क़तार में थे । मगर सारे लोग वही रहे होंगे एसा भी कैसे कहा जा सकता है ? देश के शराबियों की संख्या से कई गुना अधिक है ग़रीबों की तादाद लेकिन क़तार में ग़रीबों के दिखते ही कोरोना काल में उनके प्रति उत्पन्न हुई सहानुभूति नफ़रत में बदल गई । नतीजा प्रतिदिन ग़रीबों, बेसहाराओं और दिहादी मज़दूरों में भोजन के मुफ़्त पैकेट बाँटने वाली संस्थाओं और दानवीरों ने अपने हाथ वापिस खींच लिए । हर एक की ज़ुबान पर इन बेसहाराओं के प्रति यही कड़वे बोल हैं कि इनके पास शराब के पैसे हैं मगर रोटी के लिए नहीं ? कोई जाँचने की कोशिश नहीं कर रहा कि शराब की लाइन में लगा कौन सा आदमी मुफ़्त खाने की भी क़तार में था ? किसी ने पता करने की कोशिश नहीं की कि कहीं एसा तो नहीं कि कुछ रुपयों के प्रलोभन में वह किसी पैसे वाले की ख़ातिर लाइन में लगा हो । बेशक देसी शराब की दुकानों पर एसा नहीं हुआ होगा मगर क्या किसी ने पता किया कि दो-तीन दिन में कितने लोग देशी शराब के ठेकों पर आये और उनके मुक़ाबले शहर में मुफ़लिसों की संख्या कितने गुना अधिक है ?
विजय नगर के चाँदमारी के इलाक़े में दशकों से एक हज़ार से अधिक झुग्गियाँ बसी हुई हैं । ये लोग क़ूड़ा बीनने , प्लास्टिक का कबाड़ बेचने व बकरियाँ चराने जैसे छोटे मोटे काम करते हैं । निकट ही मुस्लिम बस्तियाँ भी हैं । रमज़ान के दिनो में चूँकि आमतौर पर मुस्लिम परिवार शाम का भोजन कुछ फ़ालतू ही बनाते हैं ताकि ज़रूरतमंदों में उसे बाँटा जा सके । अपने से कमज़ोर माली हालत वालों के प्रति हमदर्दी रखने की ताक़ीद यूँ भी इस्लाम में है । इसलिए आर्थिक रूप से मजबूत मुस्लिम परिवार ज़कात और ख़ैरात ही नहीं सदके के लिए भी रमज़ान में खाना बाँटने को ज़रूरतमंद लोगों को तलाशते रहते हैं । इलाक़े की मोअजिज़ शख़्सियत ज़की तारिक बताते हैं कि चाँदमारी के लोग कभी ख़ैरात नहीं लेते थे मगर आजकल शाम होते ही धारा के स्कूल के बाहर अकीदतमंदों से खाना लेने को आ खड़े होते हैं । कोरोना काल ने उन्हें भी भिखारी बना दिया जो ग़ैरत से अब तक जीते थे मगर हाय रे बेवड़ों तुम्हारे नशे ने तुम्हारी ही जाति यानि ‘ ग़रीब ‘ को मिली हमदर्दी भी छीन ली ।
इसमें कोई दो राय नहीं कि ज़रूरतमंदों को कब तक मुफ़्त खाना और राशन दिया जा सकता है । देर सवेर उन्हें किसी न किसी रोज़गार से जोड़ना ही पड़ेगा । अब हर काम सरकार के भरोसे भी तो नहीं छोड़ा जा सकता । कविनगर निवासी चार्टेड एकाउंटेट विवेक मित्तल ने एक अनोखी पहल की है । उन्होंने एसी पचास ज़रूरतमंद महिलाओं से मास्क बनवाने का काम शुरू किया है जिनकी भूखों मरने की नौबत आ गई थी । मास्क की सिलाई से फ़ौरी तौर पर ही सही मगर पचास घरों में चूल्हा तो जल रहा है । राज नगर के सुनील चौधरी ने कालोनी के चौदह मोचियों को ढूँढा है जो आजकल अपने ठीए पर तो रोज़ बैठते हैं मगर लॉकडाउन की वजह से उनके पास कोई काम नहीं है । ये लोग ख़ुद्दारी में किसी से कुछ माँगते भी नहीं । सुनील ने उनका घर चलाने की जिम्मेदारी ले रखी है । शहर में एसे हज़ारों लोग हैं जो अपने इर्दगिर्द के ज़रूरतमंदों की आजकल मदद कर रहे हैं । किस किस का ज़िक्र करें , जितने लोग हैं उतनी कहानियाँ हैं । अब संकटकाल में दया का मूल मानवीय स्वभाव चाहें भी तो हम नहीं छोड़ सकते मगर नाश जाये उन चंद बेवड़ों का जिनकी वजह से हर ग़रीब आदमी बदनाम हो गया और मदद को आगे बढ़े हाथ वापिस लौटने लगे । बुज़ुर्ग ठीक ही कह गए कि बद अच्छा बदनाम बुरा ।